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जैनेतर परम्परामों में अहिंसा
३३ "जो धर्म की मर्यादा से भ्रष्ट हो चुके हैं, मूर्ख हैं, नास्तिक हैं तथा जिन्हें आत्मा के विषय में संदेह है, एवं जिनकी कहीं प्रसिद्धि नहीं है, ऐसे लोगों ने ही हिंसा का समर्थन किया है। धर्मात्मा मनु ने सम्पूर्ण कर्मों में अहिंसा का प्रतिपादन किया है । मनुष्य अपनी ही इच्छा से यज्ञ की बाह्यवेदी पर पशुओं का बलिदान करते हैं।.......... सम्पूर्ण भतों के लिये जिन धर्मों का विधान किया गया है, उनमें अहिंसा ही सबसे बड़ी मानी गई है। यदि कहें कि मनुष्य यूप-निर्माण के लिए जो वृक्ष काटते हैं और यज्ञ के उद्देश्य से पशुबलि देकर जो मांस खाते हैं, वह व्यर्थ नहीं है अपितु धर्म है, तो यह ठीक नहीं, क्योंकि ऐसे धर्म की कोई प्रशंसा नहीं करता । सुरा, आसव, मध, मांस और मछली तथा तिल और चावल की खिचड़ी, इन सब वस्तुओं को धूतों ने यज्ञ में प्रचलित कर दिया। वेदों में इनके उपयोग का विधान नहीं है। ब्राह्मण तो सम्पूर्ण यज्ञों में भगवान विष्णु का ही आदरभाव मानते हैं और खीर तथा फूल आदि से उनकी पूजा का विधान करते हैं।"
इसी तरह नारद ने भी एक ब्राह्मण की कहानी कही है, जो अहिंसापूर्ण यज्ञ करना चाहता था। उसने यज्ञ का प्रारम्भ तो अपने विचारानुसार ही किया किन्तु अन्त में कुछ लोगों की राय पाकर हिंसा करने को भी तैयार हो गया। उसके साथ में धर्म का निवास था जो मृग के रूप में उस ब्राह्मण के साथ रहता था; अज्ञानवश ब्राह्मण ने उस मृग को मारकर बलिकार्य सम्पादित करने का विचार किया और जैसे ही यह धारणा उसके दिमाग में बनी कि वह साधत्व की उच्च कोटि से निम्न कोटि में आ गया। पशुबलि-संबन्धी राय उसे सही रूप में नहीं अपितु परीक्षा के लिए दी गई थी, और परीक्षा में वह असफल रहा। १. उपगम्य वने सिद्धि सर्वभूतादिहिंसया।
अपि मूलफलैरिष्टो यज्ञः स्वर्यः परं तपः ॥५॥ तस्य तेनानुभावेन मृगहिंसात्मनस्तदा। तपो महत्समुच्छिन्नं तस्माद्धिसा न यज्ञिया ॥१८० २७२,
सम्पूर्ण अध्याय भी देखें।
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