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जैन धर्म में अहिंसा यदि कोई व्यक्ति कहता है कि 'स्यात्' पुस्तक मोटी है तो ऐसा कहने से यह नहीं जाहिर होता कि पुस्तक लम्बी नहीं है या चौड़ी नहीं है। बल्कि कहने वाला अपनी बात तक ही सीमित रह जाता है। ऐसा करने से अन्य व्यक्तियों के विचारों का विरोध नहीं होता और जहाँ विरोध नहीं है वहाँ द्वेष नहीं है तथा जहाँ द्वेष नहीं है, वहाँ हिंसा नहीं है । अत: अहिंसा के सिद्धान्त का तात्त्विक विवेचन अनेकान्तवाद तथा स्याद्वाद के रूप में होता है।
महावीरकालीन अहिंसा-सिद्धान्त :
समय के प्रवाह में हर वस्तु का कुछ न कुछ विकास और ह्रास होता है । अहिंसा का सिद्धान्त भी इससे अछूता नहीं है। महावीर ने कहा -
तथिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं । अहिंसा निउणा विट्ठा, सव्वभूएसु संजमो॥ सम्वे जोवा वि इच्छंति, जीविउ न मरिज्जि।
तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति २ ॥ अहिंसा सुखदायिका है, अतः सभी प्राणियों पर दया करनी चाहिए। सभी प्राणो जोना चाहते हैं, मृत्यु को कोई भी पसन्द नहीं करता। इसलिये प्राणि-वध का संयमी या निर्ग्रन्थ पुरुष त्याग करते हैं। इसके आधार पर हिंसा को पूर्णतः त्याग देने की बात सभी लोगों के मन में जग पड़ी और चूकि सभी प्रकार की हिंसाओं में परिग्रह ही मूल बनता है, अतः परिग्रह भी सर्वथा त्याज्य समझा जाने लगा। हिंसा से बचने के लिये वस्त्रादि का भी त्याग होने लगा, जैसाकि दशवैकालिक सूत्र में कहा है कि जो देवता और मनुष्य-सम्बन्धी
१ जैनदर्शन-पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, पृ० ५६-६४.
तथा जैनधर्म-पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री, पृ० ६४-६६. २ दशवकालिकसूत्र, छठा अध्ययन ।
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