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जैन धर्म में अहिंसा लेकिन इनमें यह नहीं बताया गया कि यदि किसी कारणवश भंग हो जाये तो उस दोष से छुटकारा पाने के लिये क्या करना उचित है। नियम-भंग दोष से बचने के लिये प्रायश्चित्त करने का निशीथ मूलसूत्र में विधान किया गया है।'
महावीर के समय अहिंसा का ठोस रूप था, जिसमें किसी भी प्रकार की कमजोरी की गुंजाइश नहीं थी, न कोई अपवाद था। महावीर के अनुसार साधु को विरोधियों से मार-पीट मान-अपमान सब कुछ पाते हुए और स्थिर मन से सब कष्टों को सहते हुए अहिंसा व्रत का पालन करना उचित समझा गया। महावीर स्वयं अनेक जगहों पर पागल या और कुछ ही समझे गये और मार गालियां सब कुछ सहते हुए अहिंसा व्रत को निभाया। महावीरकालोत्तर अहिंसा-सिद्धान्त :
बाद में अहिंसा के बहुत से अपवाद बने, साथ ही अहिंसा से सम्बन्धित आहारादि के अपवाद भी। अहिंसा के नियमों में ऐसा पाया जाता है कि यदि कोई व्यक्ति अपने वैरी का पुतला बनाकर उसके मर्मस्थलों को आहत करता है तो ऐसी क्रिया 'दर्पप्रतिसेवना'' यानी हिंसा कही जायेगी। लेकिन यदि कोई व्यक्ति साधु-संघ अथवा
चैत्य को क्षति पहुंचाता है तो ऐसी हालत में उसके मिट्टी के पुतले को मर्माहत करना हिंसा दोष या प्रतिसेवना के अन्र्तगत नहीं आता। यह हिंसा करने का अहिंसक उपाय कहा जा सकता है। ऐसी हिंसा से हिंसा करने वाला साक्षात् हिंसा से बच पाता था और इसमें कम हिंसा होने की कल्पना थी। फिर अहिंसक वर्ग के समक्ष यह समस्या उठी कि यदि कोई व्यक्ति परोक्ष में धर्म या संघ का विरोध करता है तो उसके साथ मंत्र का भी प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन जो
१ निशीथ, मूलसूत्र २. ३२-३६, ३८-४६ ३. १-१५, ४. १६-२१, ३८
३६, ८. १४-१८, ९.१-२, ६ ११-३, ६. ७२-८१, १५. ५-१२,
७५-८६, १६.४-१३, १६-१७, २७, १८.२०-२३ २ निशीथचूर्णि, गाथा १५५. ३ वही, गा० १६७.
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