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जैनाचार और अहिंसा
२११ उत्तरगुण कहा गया है, क्योंकि उन सबों से मूलगुण की पुष्टि होती है । अणुव्रत के पांच प्रकार होते हैं जिनमें स्थूल पापों से बचने का प्रयास किया जाता है : १. स्थूल प्राणातिपात-विरमण, २. स्थूल मृषावादविरमण, ३. स्थूल अदत्तादान-विरमण, ४. स्वदारसंतोष तथा ५. इच्छापरिमाण । __ स्थूल प्राणातिपात-विरमण-इसकी व्याख्या विभिन्न ग्रन्थों में विभिन्न प्रकार की मिलती है। उपासकदशांगसूत्र में कहा गया है कि गाथापति आनन्द ने श्रावकधर्म ग्रहण करते समय कहा था कि मैं स्थूल हिंसा का दो करण तीन योग से त्याग करूगा। यानी, मन वचन और काय से हिंसा न करने एवं न कराने की उसने प्रतिज्ञा की। समीचीनधर्मशास्त्र या रत्नकरण्ड-उपासकाध्ययन में स्थूल हिंसा अर्थात् त्रस जीवों की हिंसा संकल्पपूर्वक तीन करण या मन, वचन, काय तथा तीन योग यानी करना, कराना, अनुमोदन करना, से न करने को प्रथम अणुव्रत कहा गया है। वसुनन्दि-श्रावकाचार में सिर्फ इतना ही कहा गया कि त्रसकाय जीव की हिंसा न करना प्रथम अणुव्रत है । इसमें करण और योग की संख्या पर प्रकाश नहीं डाला गया है। किन्तु इन तीनों से यह बात जरूर स्पष्ट होती है कि प्रथम अणुव्रत में स्थूल हिंसा यानी त्रस जीवों की हिंसा नहीं करनी है। इस व्रत में गृहस्थ के अहिंसावत की मर्यादा सिर्फ स्थूल जीवों ( द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय ) और दो योग यानी कृत-कारित तक ही निर्धारित की गई है। इसका कारण यह है १. प्राणातिपात-वितथव्याहार-स्तेय -काम-मूर्छाभ्यः । स्थूलेभ्यः पापेभ्यः व्युपरमणमणुव्रतं भवति ।।६॥ ५२ ।।
-समीचीन धर्मशास्त्र. २. उपासकदशांग सूत्र, प्रथम अध्ययन, सूत्र १३. . . ३. संकल्पात्कृत-कारित-मननाद्योग-त्रयस्य-चर-सत्वान् ।
न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूल वधाद्विरमणं निपुणाः ।। ७ ।। ५३।। ४. जे तसकाया जीवा पुन्वद्दिटठा ण हिंसियव्वा ते । एइंदिया वि णिक्कारणेण पढमं वयं थूलं ॥ २० ॥
-वसुनन्दिकृत श्रावकाचार.
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