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जैन धर्म में अहिसा
हिंसा हो जाती है । विष्णुपुराण में यज्ञ में हवि के रूप में प्रयोग होनेवाली सभी वस्तुओं के नाम दिये हैं, किन्तु उसमें किसी भी प्रकार . का मांस या मछली का विधान नहीं है । इससे यह बात स्पष्ट-सी हो जाती है कि विष्णुपुराण यज्ञ में पशुबलि देने के पक्ष में नहीं है । इसके अनुसार यज्ञ में पशुबलि देने का मतलब है विष्णु की बलि देना, क्योंकि विष्णु सर्वव्यापक हैं, वे सभी जीवों में निवास करते हैं । इसने हिंसा का संबंध विभिन्न प्रकार के पापों से बताया है; हिंसा से तरह-तरह के पाप पैदा होते हैं । अग्निपुराण में भी अहिंसा की महत्ता को बढ़ाते हुए इसकी तुलना हाथी के पदचिह्नों से की गई है । मत्स्यपुराण के अनुसार अहिंसा मुनिव्रतों में से एक है । कोई व्यक्ति जितना पुण्य चार वेदों को पढ़कर तथा सत्य बोलकर प्राप्त करता है, उससे कहीं ज्यादा पुण्य वह अहिंसाव्रत का पालन करके प्राप्त कर सकता है । ब्रह्मपुराण में मन, वचन तथा काय से पाला गया अहिंसाव्रत स्वर्गप्राप्ति तथा मुक्ति का एक साधन कहा गया है । नारदपुराण में सत्य से अहिंसा का स्थान ऊंचा बताते हुए यह कहा गया है कि वही सत्य वचन है जिससे किसी का विरोध न हो, किसी को कष्ट न पहुँचे। इसके अनुसार अहिंसा यम के विभिन्न रूपों में से एक है । जैसा कि बृहदुधर्मपुराण बताता है, श्रद्धा, अतिथिसेवा, सब प्राणियों से आत्मीयता, आत्मशुद्धि आदि अहिंसा की विभिन्न विधियाँ हैं । कुम्मंपुराण ने अहिंसा को ज्ञानी और ब्राह्मणों तक ही सीमित नहीं रखा है, अपितु इन सभी वर्णों एवं सभी आश्रमों के लिए आवश्यक कहा है । भागवतपुराण के अनुसार अहिंसा धर्म के तीस लक्षणों में प्रमुख स्थान रखती है ।
ब्राह्मण-दर्शन में भी हिंसा-अहिंसासंबंधी बृहद् विवेचन मिलता है । योग ने अहिंसा को यम का एक अंग माना है । अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह महाव्रत हैं जो जाति, देश, काल तथा परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होते । इसके अनुसार हिंसा की जाती है, करायी जाती है तथा अनुमोदित होती है । सांख्य और मीमांसा ने 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' के संबंध में काफी तर्क-वितर्क किया है । सांख्य ने वैदिक यज्ञ में होनेवाली पशुबलि को दोषपूर्ण बताया है, लेकिन मीमांसा का विचार इसके विपरीत है यानी मीमांसा
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