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जैन धर्म में अहिंसा
अहिंसा के दो प्रकार होते हैं-निषेधात्मक तथा विधेयात्मक | किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुंचाना निषेधात्मक अहिंसा होती है । यह हिसात्मक क्रिया का विरोध या निषेध करती है । लोगों की सामान्य जानकारी में हिंसा का निषेधात्मक प्रकार ही होता है । किन्तु अहिंसा के विधेयात्मक रूप या प्रकार भी होते हैं, जैसे दया करना, सहायता देना, दान देना आदि । दया के चार भंग होते हैं द्रव्यदया अर्थात् अपनी ही आत्मा की तरह दूसरों की आत्मा को समझते हुए किसी प्राणी को कष्ट न पहुंचाना; भावदया - आत्मगुणों का विकास करना; स्वदया - सांसारिक मोह-ममता से अपने को दूर रखने का प्रयास तथा पर- दया- दूसरे के लिए सुख-सुविधा लाने एवं दुःख दूर करने के निमित्त प्रयास करना ।
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अनुग्रह के लिए अपनी वस्तु का त्याग दान कहा जाता है । इसके चार अंग होते हैं - विधिविशेष, द्रव्यविशेष, दाता की विशेषता तथा पात्र की विशेषता । संग्रहदान, भयदान, कारुण्यदान आदि इसके दस प्रकार होते हैं । इससे पुण्य की प्राप्ति होती है । किन्तु इस सम्बन्ध में जैन विद्वानों के बीच मतैक्य नहीं है । विशेषतौर से अनुकम्पादान के विषय में तेरापंथियों का मत है कि इनसे एकान्त पाप होता है । इनके अनुसार सिर्फ संयति लोग ही दान प्राप्त करने के लिए सुपात्र होते हैं । इन लोगों के अलावा जो भी हैं वे दान पाने के अधिकारी नहीं होते । कारण, वे कुपात्र होते हैं । कुपात्र को दान देने से एकान्त पाप होता है । इस मत की पुष्टि जयाचार्य के द्वारा ' भ्रमविध्वंसन' में हुई है । किन्तु इनके मत के एक-एक सूत्र का खण्डन आचार्य जवाहिरलाल जी ने 'सद्धर्ममण्डन' में किया है और यह स्पष्ट कर दिया है कि अनुकम्पादान पापजनक नहीं बल्कि पुण्यजनक है ।
अहिंसा से यद्यपि जनकल्याण होता है, दूसरों की रक्षा होती है, इसका मुख्य उद्देश्य आत्मकल्याण है । अहिंसाव्रत के पालन में आत्मसंयम ही साध्य का काम करता है । यदि इससे लोक-कल्याण होता है तो मात्र इस सिलसिले में कि आत्म-कल्याण के लिए प्रयास किया जाता है ।
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