Book Title: Jain Dharma me Ahimsa
Author(s): Basistha Narayan Sinha
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 300
________________ उपसंहार २८१ अपरिग्रह | इस विचार से प्रायः वैदिक, बौद्ध आदि सभी परंपराएं सहमत हैं पर जैनधर्म ने इस पर काफी जोर दिया है । मांस भक्षण हिंसा का ही एक रूप है अथवा कारण है । वैदिक परंपरा के प्रारम्भ में मांस भक्षण का कोई निषेध नहीं किया गया है, बल्कि यज्ञ के द्वारा प्राप्त मांस को ग्रहण करना पुण्यजनक बताया गया है । किन्तु बाद में मांस भक्षण पर कुछ नियंत्रण लाये गए हैं। मनुस्मृति में मांस भक्षण और मांस भक्षण- निषेध दोनों ही तरह की बातें मिलती हैं। इसमें एक जगह पर मांस लोलुपता के वशीभूत व्यक्ति के लिए चीनी आदि के बकरे या अन्य पशु-पक्षी बनाकर और उन्हें मारकर खाने का विधान किया गया है । ऐसा करने से, कहा जा सकता है कि व्यक्ति से भावहिंसा भले ही हो किन्तु द्रव्यहिंसा न होगी। आगे चलकर महाभारत आदि में विशेष आपत्ति की अवस्था में, जैसे प्राणरक्षा के निमित्त मांस खाने की छूट मिली है । बौद्ध परंपरा में भी बुद्ध भिक्षुओं को दवा के रूप में खून, चर्बी तथा मांस के प्रयोग की अनुमति दी है। साथ ही यह भी कहा है कि भिक्षु उस मांस या मछली को ग्रहण कर सकता है जो गृहस्थों के द्वारा दी गई हो, और गृहस्थ ने भी उस मांस, मछली को भिक्षु के निमित्त नहीं बल्कि अपने लिए ही तैयार किया हो । परन्तु जैन परंपरा में किसी भी स्थिति में मांस भक्षण का विधान नहीं है । इस प्रकार हिंसा-अहिंसा के सभी पहलुओं को देखते हुए ऐसा कहा सकता है कि जैनधर्म ने अहिंसा पर प्रकाश डालने अथवा इसे अपनाने में बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि का प्रयोग किया है, जो अधिक जगहों पर अपनी पराकाष्ठा को छूती है। जिसकी वजह से अहिंसा का सिद्धान्त अपने आप में सही होते हुए भी आचरण में अति कठिन हो गया है, और शायद यही कारण है, जिससे जैनधर्म का विस्तार पूर्ण रूपेण नहीं हो सका, जैसा कि बौद्धादि धर्मो का हो सका है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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