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'महाभारत' में कहा गया है कि धर्म का उपदेश भूत-प्राणियों की हिंसा रोकने के लिए ही है ( अहिंसार्थं हि भूतानां धर्म-प्रवचनं कृतम् ) । आधुनिक काल में हिन्दूधर्म के प्रमुख परिष्कर्ता और देश के महान् नेता गांधीजी ने अहिंसा को अपने जीवन-दर्शन का प्रधान स्तम्भ घोषित किया । भारतीय धर्मों की किसी भी परम्परा में अहिंसा केवल एक निषेधमूलक सिद्धान्त ही नहीं है; उसका एक भावात्मक पक्ष भी है जिसके अनुसार हमें समस्त जीवित प्राणियों का हितचिन्तन करना चाहिए। गांधीजी ने प्रकारान्तर से धर्म को दरिद्रनारायण की सेवा से सम्पृक्त किया है ।
वास्तव में अहिंसा की शिक्षा के पीछे एक तत्त्वदर्शन है । मनुष्य दूसरों का अहित करके भी अपना हित साधन करना चाहता है । इस प्रकार सब तरह के अनाचार और अधर्म के मूल में गलत कोटि का आत्म-प्रेम है । कहा गया है कि मनुष्य को सब भूत-प्राणियों में आत्मवत् बरतना चाहिए; इसे स्वीकार करने पर ही मनुष्य सब प्रकार की हिंसा से सचमुच विरत हो सकता है। जब तक मनुष्य अपने जीवन और स्वार्थों को दूसरों से अधिक महत्व देता है तब तक वह पूर्णतया धार्मिक अथवा अहिंसा का पालन करनेवाला नहीं बन सकता ।
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डॉ० सिन्हा ने ग्रथ को बड़े परिश्रम से तैयार किया है। उन्होंने अहिंसा से सम्बद्ध जेन साहित्य का तो विस्तृत अध्ययन किया ही है, हिन्दू परम्परा का भी सटीक विवरण प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा प्राञ्जल और शैली स्पष्ट एवं सुबोध है । यह पुस्तक निश्चय ही अहिंसा के जिज्ञासुओं तथा हिन्दी साहित्य के लिए एक महत्त्वपूर्ण देन है ।
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प्रो० न० कि० देवराज निदेशक, उच्चानुशीलन दर्शन केन्द्र काशी विश्वविद्यालय
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