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डा० सिन्हा के विद्वत्तापूर्ण चिन्तन का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में स्पष्टतः परिलक्षित होता है । उन्होंने अहिंसा-सम्बन्धी चिन्तनधारा में विस्तृत एवं गहरा अवगाहन किया है । केवल अतीत युग का चिन्तन ही नहीं, उनकी अपनी भी कुछ ऐसी मौलिक उद्भावनाएं हैं, जो अहिंसा की महत्ता पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालती हैं । जहाँ तक मेरी जानकारी है, वर्तमान में अहिंसा पर इतना व्यापक, साथ ही प्रामाणिक विवेचन एवं समीक्षण शोध-ग्रन्थ के रूप में संभवत: पहली बार ही प्रस्तुत हुआ है । विद्वान् लेखक ने शोध-प्रबन्ध के माध्यम से अपनी अध्ययनशीलता, कठोर श्रम, लगन, सूझ-बूझ एवं प्रतिभा का आकर्षक परिचय देने में पर्याप्त सफलता प्राप्त की है, अतः वह प्रबुद्ध मनीषीवर्ग की ओर से शतशः साधुवादार्ह है ।
उपाध्याय अमर मुनि
डॉ० बशिष्ठ नारायण सिन्हा लिखित 'जैनधर्म में अहिंसा" पुस्तक में प्रतिपाद्य विषय का सर्वागपूर्ण अनुशीलन किया गया है । लेखक ने देश-विदेश की सभी धार्मिक परम्पराओं में अहिंसा-संबंधी विचारों को खोजने का प्रयत्न किया है, और उनके परिप्र ेक्ष्य में जैनधर्म के अहिंसासिद्धान्त का विस्तृत, प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत किया है। भारतीय धर्म-चेतना में अहिंसा को विशेष स्थान दिया गया है । 'महाभारत' और 'योगसूत्र' जैसे हिन्दू ग्रन्थों में तथा बौद्धों के धार्मिक- दार्शनिक साहित्य में भी, अहिंसा को धर्म का मूल अथवा प्रधान रूप घोषित किया गया है । किन्तु हिन्दूधर्म में अहिंसा की शुरू से वैसी मान्यता न थी । वेदों अथवा ब्राह्मण ग्रन्थों के कर्मकाण्ड - परक धर्म में हिंसा का ऐकान्तिक निषेध नहीं था । बाद में सांख्यदर्शन तथा वैष्णव अथवा भागवतसम्प्रदाय में हिंसा का उग्र विरोध किया गया । निश्चय ही इस परिवर्तन के पीछे श्रमण परम्परा का प्रभाव रहा ।
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