Book Title: Jain Dharma me Ahimsa
Author(s): Basistha Narayan Sinha
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 294
________________ उपसंहार २७५ हिंसा अष्ट कर्मो की गांठ, मोहरूप, मृत्यु का कारण तथा नरक में ले जानेवाली है, जैसा कि आचारांगसूत्र में कहा है। हिंसा करनेवाला यदि तपस्या के कारण देवता बनता है, तोभी वह नीच एवं असुर संज्ञक देवता ही होता है। इतना ही नहीं बल्कि जो हिंसक, मृषावादी, लुटेरा, महारंभी तथा मांसभक्षक हे वह नरकायु का इन्तजार वैसे ही करता है जैसे बकरा पालनेवाला मेहमान का इन्तजार करता है। अर्थात् हिंसक के लिए नरक-प्राप्ति की संभावना उतनी ही रहती है, जितनी मेहमान के आ जाने पर घर पर रहे हुए बकरे के कटने की। ___ असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह हिंसा के पोषकतत्त्व हैं यानी इन सबसे हिंसा की पुष्टि होती है। असत्य के तीन भेद होते हैं - गर्हित जिसमें दुष्टतापूर्ण वचन, चुगली, कठोर वचन, प्रलाप आदि की गणना होती है; सावद्य अर्थात् छेदने, भेदने, मारने, शोषण करने आदि के निमित्त प्रयुक्त शब्द और अप्रिय अर्थात् अप्रीति, भय, शोक, कलह आदि पैदा करनेवाले शब्द । इस तीन प्रकार के असत्य से विभिन्न रूपों में प्राणी को कष्ट पहुंचता है या हिंसा होती है। चोरी भी हिंसा का कारण है, क्योंकि प्रिय वस्तु का हरण भी कष्टदायक होता है। अब्रह्मचर्य अर्थात मैथुन से स्त्री की योनि, नाभि, कुच, कांख आदि स्थानों में रहनेवाले सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा होती है। परिग्रह के कारण व्यक्ति दूसरे के उचित अधिकार को हड़पना चाहता है, जिससे राग और द्वेष की पैदाइश होती है, जो हिंसा के मूल हैं। हिंसा की तरह अहिंसा के साथ भी तीन योग तथा तीन करण होते हैं। अहिंसा मन, वाणी और काय से की जाती है अर्थात् इसके दो स्वरूप हैं-भाव अहिंसा तथा द्रव्य अहिंसा, जिनके आधार पर इसके चार भंग होते हैं, जैसे हिंसा के होते हैं। अहिसा स्वयं की जाती है, दूसरे से करवाई जाती है तथा अनुमोदित भी होती है। इसी कारण से अहिंसा को परिभाषित करते हुए आवश्यकसूत्र में कहा गया है कि तीन योग तथा तीन करण से किसी भी प्राणी का घात न करना ही अहिंसा है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में अहिंसा के निर्वाण, निर्वृति, समाधि या समता, शान्ति, कोर्ति, कान्ति, रति, विरति, श्रुतांगा, तृप्ति, प्राणिरक्षा आदि साठ नाम बताये गये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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