Book Title: Jain Dharma me Ahimsa
Author(s): Basistha Narayan Sinha
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 297
________________ जैन धर्म में अहिंसा २७८ कष्ट न पहुँचाए, भले ही स्वयं उसे कितना भी कष्ट क्यों न झेलना पड़े । इसका ज्वलन्त उदाहरण महावीर के जीवन में पाया जाता है । किन्तु बाद में चलकर इस नियम के कुछ अपवाद भी बन गये । अहिंसा तथा सत्य एक दूसरे के पूरक हैं अर्थात् एक को छोड़कर दूसरे को निभाना असंभव सा हो जाता है । किन्तु कभी-कभी अहिंसा की पूर्ति के लिए सत्य को त्याग दिया जाता है । इसीलिए कहा गया है कि सत्य यदि कष्टदायक हो तो उसे त्याग देना चाहिए, अन्यथा हिंसा हो जाती है । जैनधर्म में श्रावक तथा श्रमण के लिए हिंसा - अहिंसा का विचार अलग-अलग किया गया है | श्रावक के लिए बारह व्रत तथा ग्यारह प्रतिमाओं का विधान किया गया है। बारह व्रतों में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत होते हैं । इन सबों के द्वारा श्रावक के चरित्र को अहिंसामय बनाने का प्रयास किया गया है, फिर भी गृहस्थों अथवा श्रावक को कुछ छूट मिली है । श्रावक के लिए हिंसा, मृषावाद, स्तेय, ब्रह्मचर्य तथा परिग्रह के स्थूल रूप से बचना विहित है । अतः इनके व्रत अणुव्रत कहे जाते हैं । क्योंकि श्रमणों की तरह ये अहिंसादि व्रतों का पूर्णरूपेण पालन नहीं करते । गुणव्रत, शिक्षाव्रत तथा प्रतिमाओं के द्वारा भी श्रावकों के लिए हिंसा अहिंसासंबंधी वहुत-सी मर्यादाएं कायम की गई हैं । श्रमणों के लिए पंच महाव्रत, रात्रि भोजनविरमण व्रत, समिति, गुप्ति, षडावश्यक, लिंगकल्प, वस्त्रमर्यादा, पात्रमर्यादा, आहारमर्यादा तथा विहारमर्यादा का विधान किया गया है । श्रमणों के लिए किसी भी प्रकार की हिंसा की छूट नहीं दी गई है । इनके लिए जितने भी नियमों के विधान किए गए हैं, वे सिर्फ इसीलिए हैं कि इनके द्वारा किसी भी प्रकार की हिंसा न हो । गांधीवाद ने अहिंसा का अर्थ किया है पूर्ण निर्दोषता । प्राणि-मात्र के प्रति दुर्भाव या दुराव का पूर्ण त्याग । यह एक महाव्रत है । इससे सत्ये - श्वर की प्राप्ति होती है । यानी सत्य को प्राप्त करने का एक साधन है | गांधीजी की दृष्टि में अहिंसा से बढ़कर कोई कर्तव्य नहीं हो सकता । इसके दो स्वरूप होते हैं-भाव तथा द्रव्य । कारण यह मन, वाणी तथा काय तक विस्तृत है । अहम् पर आधारित जितनी भी क्रियाएं होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332