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जैन धर्म में अहिंसा
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कष्ट न पहुँचाए, भले ही स्वयं उसे कितना भी कष्ट क्यों न झेलना पड़े । इसका ज्वलन्त उदाहरण महावीर के जीवन में पाया जाता है । किन्तु बाद में चलकर इस नियम के कुछ अपवाद भी बन गये ।
अहिंसा तथा सत्य एक दूसरे के पूरक हैं अर्थात् एक को छोड़कर दूसरे को निभाना असंभव सा हो जाता है । किन्तु कभी-कभी अहिंसा की पूर्ति के लिए सत्य को त्याग दिया जाता है । इसीलिए कहा गया है कि सत्य यदि कष्टदायक हो तो उसे त्याग देना चाहिए, अन्यथा हिंसा हो जाती है ।
जैनधर्म में श्रावक तथा श्रमण के लिए हिंसा - अहिंसा का विचार अलग-अलग किया गया है | श्रावक के लिए बारह व्रत तथा ग्यारह प्रतिमाओं का विधान किया गया है। बारह व्रतों में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत तथा चार शिक्षाव्रत होते हैं । इन सबों के द्वारा श्रावक के चरित्र को अहिंसामय बनाने का प्रयास किया गया है, फिर भी गृहस्थों अथवा श्रावक को कुछ छूट मिली है । श्रावक के लिए हिंसा, मृषावाद, स्तेय, ब्रह्मचर्य तथा परिग्रह के स्थूल रूप से बचना विहित है । अतः इनके व्रत अणुव्रत कहे जाते हैं । क्योंकि श्रमणों की तरह ये अहिंसादि व्रतों का पूर्णरूपेण पालन नहीं करते । गुणव्रत, शिक्षाव्रत तथा प्रतिमाओं के द्वारा भी श्रावकों के लिए हिंसा अहिंसासंबंधी वहुत-सी मर्यादाएं कायम की गई हैं । श्रमणों के लिए पंच महाव्रत, रात्रि भोजनविरमण व्रत, समिति, गुप्ति, षडावश्यक, लिंगकल्प, वस्त्रमर्यादा, पात्रमर्यादा, आहारमर्यादा तथा विहारमर्यादा का विधान किया गया है । श्रमणों के लिए किसी भी प्रकार की हिंसा की छूट नहीं दी गई है । इनके लिए जितने भी नियमों के विधान किए गए हैं, वे सिर्फ इसीलिए हैं कि इनके द्वारा किसी भी प्रकार की हिंसा न हो ।
गांधीवाद ने अहिंसा का अर्थ किया है पूर्ण निर्दोषता । प्राणि-मात्र के प्रति दुर्भाव या दुराव का पूर्ण त्याग । यह एक महाव्रत है । इससे सत्ये - श्वर की प्राप्ति होती है । यानी सत्य को प्राप्त करने का एक साधन है | गांधीजी की दृष्टि में अहिंसा से बढ़कर कोई कर्तव्य नहीं हो सकता । इसके दो स्वरूप होते हैं-भाव तथा द्रव्य । कारण यह मन, वाणी तथा काय तक विस्तृत है । अहम् पर आधारित जितनी भी क्रियाएं होती
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