Book Title: Jain Dharma me Ahimsa
Author(s): Basistha Narayan Sinha
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 296
________________ उपसहार २७७ जिस प्रकार असत्य, स्तेय आदि हिंसा के पोषक तत्त्व हैं, उसी प्रकार सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह अहिंसा के पोषक तत्त्व हैं। इनमें से किसी एक को भी त्याग देने से अहिंसा का पूर्णरूपेण पालन नहीं हो सकता। जैन दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद का अहिंसा से बहत घनिष्ठ संबंध है। जिस प्रकार आचार में अहिंसा का प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार विचार में अनेकान्तवाद का प्रतिपादन है। अनेकान्तवाद एक प्रकार से विचारात्मक अहिंसा है। महावीर के समय में आत्मनित्यवाद, उच्छेदवाद आदि बहुत-सी दार्शनिक विचारधाराएं प्रवाहित हो रही थीं जिनके फलस्रूप समाज या दार्शनिक क्षेत्र में मतभेद अपना बृहद्रूप धारण कर रहा था। इसलिए महावीर ने सभी का एक समन्वयात्मक रूप प्रस्तुत किया, जो वास्तव में किसी भी वस्तु का सही-सही ढंग से विवेचन करता है। किसी का भी ज्ञान एक सीमा तक ही होता है और उसी सीमा तक वह सही होता है। किन्तु अपनी सीमा का उल्लंघन करके यदि वह पूर्णज्ञान की जानकारी का दावा करते हुए दूसरे व्यक्तियों को गलत साबित करने का प्रयास करता है तो, वहाँ वह अपने आग्रह के कारण दूसरों को कष्ट पहुँचाता है, जिससे हिंसा होती है। अतः किसी भी व्यक्ति के लिए अपने ज्ञान की यथार्थता को एक विशेष अपेक्षा में व्यक्त करना सही और श्रेयस्कर होता है। इसके लिए महावीर ने 'स्यात्' शब्द की खोज की। इसके संयोग से व्यक्ति अपने ज्ञान को एक सीमा तक सही दिखाता है तथा अन्य ज्ञान पर किसी प्रकार का आक्षेप नहीं करता। इसे ही 'स्याद्वाद' कहते हैं । इस सिद्धान्त का अन्वेषण इसलिए भी किया गया कि महावीर के अनुसार कोई भी वस्तु अनेकधर्मात्मक होती है। यदि एक दृष्टि से वह सत् है तो दूसरी से असत; यदि वह अपने मौलिक रूप में नित्य है तो परिवर्तनीय पर्यायों के कारण अनित्य भी है। अतएव जैनधर्म में अहिंसा का सिद्धान्त तात्त्विक सिद्धान्तों से भी काफी निकटता का संबंध रखता है। अहिंसा का सिद्धान्त अपने मौलिक रूप में सभी अपवादों से परे था; इसके साथ कोई भी अपवाद नहीं था। अहिंसा पालन करनेवाले के लिए मात्र यही नियम था कि वह किसी भी जीव को किसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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