Book Title: Jain Dharma me Ahimsa
Author(s): Basistha Narayan Sinha
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 288
________________ उपसंहार । २६९ "वैदिकी हिंसा" का पक्षपाती है। शंकराचार्य ( अद्वैतवेदान्ती ) तथा रामानुज, वल्लभ ( वैष्णव ) आदि ने भी यज्ञ में होनेवाली पशुबलि को निर्दोष ही माना है। बौद्ध परम्परा में अहिंसा के बजाय मैत्री भावना को अधिक प्रधानता मिली है। अहिंसा को मित्रता का एक साधन माना गया है। दीघनिकाय में आरम्भिक, मध्यम तथा महा तीन प्रकार के शीलों की चर्चा करते हुए अहिंसा को प्रस्तुत किया गया है। इसने अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि को शीलों के अन्तर्गत स्थान दिया है। तेविज्जसुत्त में मैत्री, करुणा, मुदिता एवं उपेक्षा भावनाओं का, ब्रह्मा की सलोकता प्राप्त करने के मार्ग के रूप में, वर्णन मिलता है। संयुत्तनिकाय के अन्तर्गत 'ब्राह्मण संयुत्त' के अहिंसासुत्त में बुद्ध ने 'अहिंसक' शब्द को पारिभाषित करते हुए कहा है कि जो शरीर वचन तथा मन से किसी भी प्राणी को नहीं सताता, कष्ट नहीं पहुंचाता, वही अहिंसक है। गाय मारनेवाले ( गोघातकसुत्त ), चिडिमार ( पिण्डसाहुणीसुत्त ), भेड़ों को मारनेवाले कसाई ( निच्छवोरभिसुत्त )आदि जितने भी हिंसक हैं, उन्हें कष्ट भोगना पड़ता है। यज्ञ भी वही हितकर होता है जिसमें बकरे, गाय आदि की हिंसा नहीं होती है। प्रमाद, जिससे विभिन्न प्रकार के अनिष्ट होते हैं, सदा त्याज्य है तथा अप्रमाद ग्राह्य है । भिक्षु को सदा अप्रमत्त होकर ही विहार करना चाहिए। अप्रमाद सबसे बड़ा धर्म है, इसके अन्दर अन्य सभी धर्म आ जाते हैं, जैसे हाथी के पदचिह्नों के भीतर अन्य जीवों के पदचिह्न आ जाते हैं। इससे प्राप्त हुई मित्रता में सब प्रकार की शक्तियाँ होती हैं, अर्थात् सबसे मित्रता करनेवाला निर्भय हो जाता है। अत: जिसमें मित्रता या कल्याण मित्रता का शुभागम हो जाता है, उसमें मानों मोक्ष-प्राप्ति के लक्षण दीखने लगते हैं। सुत्तनिपात के 'मेत्तसुत्त' में सभी प्राणियों के प्रति मित्रता के भाव को ब्रह्मविहार की संज्ञा दी गई है, जिसे दूसरे शब्दों में ब्रह्मज्ञान कहा जा सकता है । इसके अनुसार जो व्यक्ति शान्तिपद ( मोक्ष) को प्राप्त करना चाहता है उसे जंगम या स्थावर, दीर्घ या महान्, मध्यम या ह्रस्व, अणु या स्थूल, दृष्ट या अदृष्ट, दूरस्थ या निकटस्थ, उत्पन्न या उत्पत्स्यमान सभी जीवों के कल्याण को बात सोचनी चाहिए। अन्य प्राणियों के प्रति उसके मन में वैसी ही भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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