________________
२२८
जैनधर्म में अहिंसा उपवास करने से मतलब है अन्न, पेयवस्तु, खाद्य आदि में रहनेवाले नोवों की हिंसा न हो, साथ हो सावद्यकर्मों से वंचित रहना भी हिंसा कम करने या न करने का ही विधान करता है।
यथासंविभाग या अतिथिसंविभागवत-अतिथि यानी जिनके आने की कोई तिथि न हो.ऐसे व्यक्तियों के लिये अपने यथासिद्ध भोज्य पदार्थ का समुचित विभाग करना यथासंविभाग अथवा अतिथिसंविभाग व्रत कहलाता है। इस व्रत के पांच अतिचार हैं :
१ सचित्तनिक्षेप-अतिथि को देने के भय से खाद्यसामग्री को सचित्तवस्तु पर रखना।
२. सचित्तपिधान -पके हुए भोजन को सचित्तवस्तु से ढंक देना।
३. कालातिक्रम-अतिथि भोजन न ले सके, इस उद्देश्य से भोजन उचित समय पर न बनाना। ___ ४ परव्यपदेश- भोज्य वस्तु को अपनी न बताकर दूसरे की बताना, ताकि अतिथि भोजन न ले सके।
५. मात्सर्य-सहज भाव से वस्तु न देकर इसलिए देना कि किसी और ने दी है यानी ईर्ष्यावश देना। ___ ईर्ष्या भी हिंसा का कारण है। पहले के दो अतिचारों में, जिनमें भोज्य वस्तु का सम्बन्ध सचित्त वस्तु से कर दिया जाता है, हिंसा होती है या होने की संभावना रहती है। अतः हिंसा न हो, इस बात को ध्यान में रखते हुए इन अतिचारों का त्याग करना चाहिये। श्रमणाचार अपवा श्रमण-धर्म :
जैनाचार में दो शब्द-देशविरत तथा सर्वविरत प्रायः प्रयुक्त किये जाते हैं। देशविरत हम उन्हें कहते हैं जो हिंसा आदि का प्रत्याख्यान पूर्णरूपेण नहीं करते हैं यानी श्रावक और सर्वविरत वे कहे जाते हैं जो हिंसादि दोषों को सब तरह से त्याग देते हैं यानी श्रमण । श्रमण धर्म के अन्तर्गत पांच महाव्रत आते हैं, जिनका पालन मुनिगण १. सचित्तनिक्खेवणया, सचित्तपेहणया, कालाइक्कमे, परववएसे, मच्छरिया ।
-उपासकदशांग सूत्र, प्र० अ०, पृष्ठ ८२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org