Book Title: Jain Dharma me Ahimsa
Author(s): Basistha Narayan Sinha
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन धर्म में अहिंसा प्रक्रियाएं नहीं होती, जितनी कि मिल में तैयार होनेवाले कपड़ों के साथ होती हैं। अतएव खादी पहनने में मिल के कपड़े पहनने से कम हिंसा है। जहां तक स्वदेशी और विदेशी मिलों की बात है, स्वदेशी मिल के कपड़ों को तैयार करनेवाले हमारे पड़ोसी भाई-बन्धु ही होते हैं और जब हम उनके द्वारा बनाये गये कपड़े पहनते हैं तो हमारे हृदय में अपने पड़ोसी बन्धुओं के प्रति प्रेम जगता है, सहानुभूति जगती है। हम उनकी रोजी-रोटी में सहायक बनते हैं। किन्तु जिन वस्तुओं के तैयार होने में मजदूरों को ज्यादा से ज्यादा कष्ट होता है, उनकी जिन्दगी एक सामान्य मानवीय जिन्दगी नहीं रह जाती, वैसी वस्तुओं के प्रयोग त्याज्य समझे जा सकते हैं, भले ही व्यवहार में उन्हें नहीं त्यागा जाता है।
अहिंसा का सामाजिक रूप :
गांधीजी ने उन भिखारियों को भीख देने का विरोध किया है, जो कि अपंग और अपाहिज नहीं हैं। क्योंकि ऐसा न करने से समाज में आलस्य तथा पर निर्भरता बढ़ती है। जो आलसी है, परावलम्बी है, उसे जिस समय दूसरों से खाने को अन्न तथा पहनने को वस्त्र नहीं मिलते, वह चोरी करता है, डकैती करता है, समाज में नाना प्रकार के हिंसाजनक कार्य करता है। अतः अहिंसा का सामाजिक रूप अपने को दयावान घोषित करते हुए सब किसी को भीखस्वरूप पैसे, भोजन आदि देना नहीं समझा जा सकता, बल्कि सोच-समझ कर, पूछताछ कर किसी को सहायता देना, जिससे समाज का वास्तविक कल्याण हो सके, अहिंसा का सामाजिक प्रयोग हो सकता है।
V अछूतोद्धार भी अहिसा का एक सामाजिक रूप है। गांधीजी ने अस्पृश्यता की भर्त्सना करते हुए कहा है कि यह हिन्दू समाज की सड़न है, वहम है और पाप है। 'जन्म के कारण मानी गई इस अस्पृश्यता में अहिंसाधर्म और सर्वभूतात्मभाव का निषेध हो जाता है। इसकी जड़ में संयम नहीं है, उच्चता की उद्धत भावना ही यहां बैठी हुई है।
१. गांधीजी, अहिंसा, प्रथम भाग, खण्ड १०, पृष्ठ ६१.
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