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उपसंहार
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अनुसार, यज्ञ में प्राप्त तथा मंत्रों से पवित्र किया हुआ मांस खाना दोषपूर्ण नहीं है । यदि कोई व्यक्ति मांस- लोलुपता के कारण यज्ञ में प्राप्त मांस के अलावा भी मांस खाना चाहता है तो वह घृत या मैदे का पशु बनाकर खा सकता है । यह मानता है कि यज्ञ में दी गई पशुबलि हिंसा की श्रेणी में नहीं आती तीसरा पक्ष मांस भक्षण को त्याज्य तथा अश्रेयस्कर बताता है। इसके अलावा स्मृति में कहीं-कहीं अहिंसा को प्रधानता देते हुए इसे लोक-कल्याण तथा मोक्ष प्राप्ति का साधन बताया गया है और यह सभी वर्णों के लिए उपयुक्त एवं अनिवार्य समझी गई है |
गृह्यसूत्रों, जैसे बौधायन, सांखायन, पारस्कर, आस्वलायन, आपस्तम्ब, खादिर, हिरण्यकेसी, जैमिनि आदि में "अन्नप्रासन", "अर्घ", “अष्टक” आदि के वर्णन मिलते हैं जिनमें मांस भक्षण का पूर्ण ब्योरा मिलता है । धर्मसूत्रों में प्रतिपादित भक्ष्य - अभक्ष्य, श्राद्ध तथा यज्ञ के विधि-विधानों में गाय आदि की पशुबलि तथा मांस भक्षण अनिवार्य घोषित किया गया है । यहाँ तक कि उस ब्राह्मण को, जो आमंत्रित होने या यज्ञ में ( पुरोहित के रूप में ) नियुक्त होने के बाद, यज्ञ में दी गई पशुबलि से प्राप्त मांस को नहीं खाता है, नरक का भागी कहा गया है । किन्तु बौधायन ने अपने धर्मसूत्र में अहिंसा के सिद्धान्त को सबलता प्रदान करते हुए कहा है कि संन्यासी को चाहिए कि वह मन, वचन और कर्म से किसी भी प्राणी को दण्ड न दे । वशिष्ठ ने संन्यासी के लिए सभी जीवों की रक्षा करना तथा गृह का त्याग करना आवश्यक बताया है । आपस्तम्ब के अनुसार ज्ञानी पुरुष अपने को सभी जीवों में तथा सभी जीवों को अपने में देखता है। अर्थात् वह जीवों के साथ आत्मवत् व्यवहार करता है, जिससे वह मुक्ति प्राप्त करता है । गौतम ने सभी जीवों पर दया, सहिष्णुता, अक्रोध आदि को आत्मा आठ गुणों में रखा है । इस प्रकार गृह्यसूत्रों में तथा धर्मसूत्रों में भी यज्ञ में की गई हिंसा को हिंसा न मानते हुए पशुबलि आदि पर बल दिया गया है । लेकिन धर्मसूत्रों में ही कहीं-कहीं पर अहिंसा के सिद्धान्त का भी अच्छी तरह पोषण हुआ है ।
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वाल्मीकि रामायण में अहिंसा, सत्य, आत्म-संयम, दया, सहिष्णुता, क्षमा आदि को आचार के प्रमुख अंग में प्रकाशित किया गया है । किन्तु
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