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षष्ठ अध्याय
वैदिक, बौद्ध, सिक्ख, पारसी, यहूदी, ईसाई, इस्लाम, ताओ, कनफ्यूशियस, सूफी, शिन्तो एवं जैन परम्पराओं तथा गांधीवाद के द्वारा प्रतिपादित हिंसा-अहिंसा संबंधी सिद्धान्तों पर दृष्टिपात करने से ऐसा ज्ञात होता है कि इन सब के बीच कुछ समानताएं हैं और कुछ असमानताएं भी। जिनकी वजह से इन सबकी अनेकता में भी एकता तथा एकता में अनेकता नजर आती है।
वेदिक परम्परा में अहिंसा का सिद्धान्त उपनिषदों से प्रारम्भ होता है यद्यपि इतस्तत: वेदों में भी इसकी झलक-सी देखी जाती है। यजुर्वेद में तो सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव तथा विश्वशान्ति के विचारों की स्पष्ट अभिव्यक्ति मिलती है। छान्दोग्योपनिषद् में अहिंसा को ब्रह्मलोक प्राप्त करने अर्थात् मुक्ति पाने का एक साधन तथा आत्मयज्ञ की दक्षिणा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। प्राणाग्निहोत्रोपनिषद् तथा आरुणिकोपनिषद् ने इसे एक सद्गुण तथा आत्म-संयम का एक प्रमुख साधन कहा है। प्राणाग्निहोत्रोपनिषद् ने तो इसे यज्ञ का इष्ट बताया है और कहा है कि सभी यज्ञादि कर्मों की सम्पन्नता में अहिंसावत की परिपूर्णता ही लक्षित है। शाण्डिल्योपनिषद् के अनुसार अहिंसा एक यम है। __मनुस्मृति में हिंसा-अहिंसासंबंधी विचारों के तीन स्तर मिलते हैं। प्रथम स्तर भक्ष्य-अभक्ष्य पर प्रकाश डालता है, जिसमें कुछ पशु-पक्षियों के मांस को ग्रहण करने तथा कुछ के मांस को त्यागने को सलाह दी गई है ( जीवो जीवस्य भोजनम् )। मांस-भक्षण का हिंसा से सीधा संबंध है, अतः इसका मांसभक्षणवाला पक्ष हिंसा को बढ़ावा देता है। दूसरा स्तर मांस-भक्षण को यज्ञ के साथ मर्यादित करता है। इसके
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