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जैन धर्म में अहिंसा सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह अहिंसा के पोषक तत्त्व हैं यानी अहिंसा का सब तरह से पालन करने के लिए इन चारों व्रतों का पालन करना आवश्यक है। अहिंसा के मिल जाने पर ये पांच महाव्रत हो जाते हैं। इन पंच महाव्रतों को गांधीवाद तथा जैनधर्म दोनों ही प्रधानता देते हैं। गांधीजी ने साफ कहा है कि अहिंसा एक महावत है। जैनधर्म में अहिंसा का स्थान सर्वोच्च है, किन्तु गांधीवाद में सत्य का। यद्यपि गाँधीजी ने एक जगह पर अन्यव्रतों को अहिंसा का पोषक माना है तथा यह भी कहा है कि अहिंसा सत्य का प्राण है। इस प्रकार उनके कथनों से सत्य का स्थान ही ऊंचा मालम होता है. क्योंकि ऐसा भी इन्होंने कहा है कि संसार में सत्य के बाद कोई शक्ति है तो अहिंसा। गांधीजी ने सत्य को धर्म और अहिंसा को एक कर्तव्य माना है और यह भी कहा है कि अहिंसा ही सत्येश्वर के दर्शन कराने का मार्ग है। इन सभी बातों से मालूम होता है कि गांधीजी की दृष्टि में सत्य का स्थान सर्वोच्च है।
अहिंसा और खेती :
हिंसा अथवा अहिसा भावप्रधान है, इसपर गांधीवाद तथा जैनधर्म दोनों ही बल देते हैं। खेती करने में किसान के द्वारा अनेक जीवजन्तुओं का हनन होता है, जब वह हल जोतता है, किन्तु किसान का उद्देश्य जीवों की हिंसा करना नहीं होता, वह तो मात्र हल जोतने की इच्छा रखता है। इसलिए उसके द्वारा की गई हिंसा क्षम्य समझी जाती है, अर्थात् हिंसा करते हुए भी वह अहिंसक ही समझा जाता है क्योंकि उसकी भावना हिंसा-प्रधान न होकर अहिंसा-प्रधान होती है। गांधीजी ने कहा है कि वे हिंसाएं जिन्हें समाज ने व्यावहारिक रूप में अनिवार्य मान लिया है, हिंसाएं होते हुए भी हिंसाएं नहीं समझी जाती या क्षम्य होती हैं। किन्तु उन्होंने अनिवार्य हिंसा की कोई परिभाषा नहीं बतलाई है, कारण वे समय और स्थिति के अनुसार बदलती रहती हैं। जैनधर्म ने ऐसी हिंसा का "अनिवार्य" या अन्य कोई नामकरण नहीं किया लेकिन क्षम्य माना है।
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