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जैन धर्म में अहिंसा
कर रही थी, जिसका ह्रास होने से कांग्रेस की नैतिकता का ह्रास हो गया है । अर्थात् ब्रह्मचर्यं को पालने के बिना अहिंसा का पालन नहीं हो सकता ।
अहिंसा और यज्ञ :
वैदिक परम्परा का विवेचन करते हुए यह देखा गया है कि अधिकांश हिन्दूशास्त्रों ने यही माना है कि यज्ञ में की जानेवाली हिंसा हिसा नहीं होती । किन्तु गांधीजी के विचारानुसार यह अपूर्ण सत्य है, पूर्ण नहीं। चाहे वह किसी समय या किसी भी प्रयोजन से की जाये, किन्तु हिंसा हिंसा ही होगी, जो कि पापजनक है, वह किसी भी हालत में अहिंसा नहीं हो सकती । लेकिन सिद्धान्त के साथ-साथ व्यवहार को भी अपना अधिकार प्राप्त है । अतएव जिस हिसा को वह अनिवार्य मान लेता है, उसे या तो क्षम्य घोषित कर देता है या उसे पुण्य की श्रेणी में भी ले लेता है । यही बात यज्ञ में की गई हिंसा के साथ है । चूंकि व्यवहार - शास्त्र ने उसे अनिवार्य हिंसा मान लिया है, अतः उसे शुद्ध और पुण्यजनक भी घोषित कर दिया है । किन्तु अनिवार्य हिंसा की व्याख्या नहीं की जा सकती, क्योंकि वह तो देश-काल और पात्र के अनुसार बराबर बदलती रहती है ।" जैसे दुर्बल शरीर की रक्षा के लिए जाड़े में लकड़ी आदि का जलाना, जिसमें अनेक जीवों की हिंसा होती है, अनिवार्य समझा जा सकता है, लेकिन गर्मी में बिना किसी जरूरत के लकड़ी या कोयला जलाकर अनेक सूक्ष्म जीवों का घात करना अनिवार्य नहीं कहा जा सकता ।
अहिंसा और खेती
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खेती शुद्ध यज्ञ है, तथा सच्चा परोपकार है । गांधीजी के इस मत पर आशंका करते हुए 'नवजीवन' के एक पाठक ने पूछा कि एक चींटी के दब जाने से मन में तकलीफ होती है और खेती करने में तो हजारों कीड़ों का विनाश होता है, ऐसी हालत में खेती कैसे की जा सकती है ? क्यों न कोई व्यक्ति भिक्षाटन करके या अन्य कोई व्यापार करके ही अपना जीवन यापन करे ?
१. गांधीजी, अहिंसा, प्रथम भाग, खण्ड १०, पृ० ५१.
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