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जैनाचार और अहिंसा
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वस्तु के अभाव में उसे कष्ट होता है या मर्यादा से अधिक भी ले लेता है तो यह कष्टदायक ही होता है । अतः किसी भी प्राणी को दुःख न हो, इसका ध्यान करते हुए श्रमण को ऊपर कथित भावनाओं का पालन करना चाहिये।
बह्मचर्य की भावनाएं - मैथुन हिंसा का कारण होता है, इससे अनेक सूक्ष्म कोटाणुओं का घात होता है। अत: निर्ग्रन्थमुनि को इसका त्याग सब तरह से कर देना चाहिये। इसकी पाँच भावनाएं हैं : १ स्त्री-कथा न करना, २. स्त्री के अंगों को न देखना, ३. पूर्वानुभूत काम-क्रीड़ा को याद न करना, ४. मात्रा का अतिक्रमण करके भोजन न करना तथा ५. उस स्थान पर न रहना जो स्त्री के सम्पर्क में हो। चूकि इन सभी कार्यों से वासना को वृद्धि होती है, जो हिंसा को बढ़ाती है, अतः श्रमण या श्रमणी सदा इन भावनाओं का सेवन करे यहां श्रेयस्कर है। __ अपरिग्रहवत की भावनाएं-परिग्रह से द्वेष, ईर्ष्या आदि हिंसाजनक कर्मों का जन्म होता है, अतः यह भी मुनियों के लिये सदा त्याज्य है। इसकी पाँच भावनाएं हैं :
१. श्रोत्रेन्द्रिय सम्बन्धी विषय के प्रति राग-द्वेष का न होना, २. चक्षुरिन्द्रिय सम्बन्धी विषय यानी रूप के प्रति अनासक्त होना, ३. घ्राणेन्द्रिय के विषय के प्रति अनासक्ति, ४. रसनेन्द्रिय के विषय के प्रति अनासक्ति तथा ५. स्पर्शनेन्द्रिय के विषय के प्रति अनासक्ति ।
रात्रिभोजन-विरमणवत:
दशवैकालिकसूत्र में क्षुल्लकाचार को वर्णित करते हुए साधु के लिये पाँच प्रकार के भोजन का निषेध किया गया है :
१. औद्देशिक - साधु या मुनि को देने के उद्देश्य से बना हुआ भोजन, २. क्रोत-साधु के लिये खरीदा गया भोजन, ३. नित्य१. आचारांग सूत्र, द्वितीय श्रु तस्कन्ध, पचदश अध्ययन, पृ० १४३५-४३.
, पृ० १४४३-५३.
पृ १४५३-६५.
२.
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