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जैनाचार और अहिंसा
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तीन करण ( करना, करवाना तथा अनुमोदन करना ) और तीन योग ( मन, वचन एवं काय ) से करते हैं । हिंसा का त्याग, असत्य का त्याग, चोरी का त्याग, मैथुन का त्याग और परिग्रह का त्याग - ये पाँच महाव्रत हैं । इनके विषय में पर्याप्त विचार किया जा चुका है । यहाँ हम देखेंगे कि इन व्रतों को परिपुष्ट करनेवाली कितनी भावनाएं हैं और किस प्रकार ये उन्हें दृढ़ बनाती हैं ।
प्राणातिपात विरमण की पांच भावनाएं
प्रथम भावना- इसका सम्बन्ध ईर्या समिति से है । निर्ग्रन्थ साधु को यत्नपूर्वक चलना चाहिये अन्यथा वह भूत, जीव और सत्त्व की हिंसा करता है, जिसकी वजह से कर्म का आगमन होता है और बन्ध होता है | अतः यह भावना इस चीज पर जोर देती है कि मुनि या श्रमण को हमेशा ही हिंसा से बचना चाहिये ।'
सावद्य
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द्वितीय भावना - मन को पापों से हटाना । पापजनक, क्रिया युक्त, आश्रव लानेवाला, छेदन-भेदन करनेवाला, कलह करनेवाला, द्वेषयुक्त, परितापजनक, प्राणों का अतिपात और जीवों का घात-उपघात करनेवाला विचार मन से दूर कर देना चाहिये, क्योंकि किसी न किसी रूप में उससे हिंसा होती ही है ।
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१. तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति, तत्यिमा पढमा भावणा इरियासमिए से निग्गंथे नो अगइरियासमिएत्ति केवली बूया "इरियासमिए से निग्गथे नो अणइरियासमिइति पढमा भावणा ॥ १ ॥
-आचारांग सूत्र,
द्वितीय श्रुतस्कन्ध, पंचदश अध्ययन, पृ० १४२०; जयं चरे जयं चिट्ठे, जयं आसे जयं सए । जयं भुजन्तो भासन्तो पावकम्मं न बंधइ ॥ - दशवैकालिक सूत्र, ४, ८० 'मणं परियाणइ से निग्गंथे, जे य मणे पावर सावज्जे सकिरिए अह करे छेयकरे भेयकरे अहिगरणिए पाउसिए परियाविए पाणाइवाइए भूओवघाइए, तहप्पगारं मणं नो पधारिज्जा गमणाइए, मणं परियार से निग्गंथे, जे य मणे अपावएत्ति दुच्चा भावणा ॥२॥
२.
- आचारांग, द्वि० श्रु०, अध्याय १५, पृ० १४२१.
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