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जैन धर्म में अहिंसा देशविरत, देशसंयमी या देशसंयती नामों से भी सम्बोधित करते हैं। गृही, सागार आगारी आदि शब्द भी इसी के लिए प्रयोग किये जाते हैं, क्योंकि वह आगार यानी घर में रहता है। इस प्रकार व्रतधारण करनेवाले गृहस्थ के लिये श्रावक, श्राद्ध, उपासक, अणुव्रती, देशविरत, देशसंयमी, देशसंयती, गृही, सागार, आगारी आदि शब्द प्रयोग होते हैं। उपासकदशांग, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्ड-श्रावकचार आदि में बारह व्रतों के आधार पर, श्रावकों के आचार का प्रतिपादन हुआ है। आचार्य कुन्दकुन्द विरचित चारित्रप्राभृत, स्वामी कार्तिकेय कृत अनुप्रेक्षा तथा आचार्य वसुन न्दि कृत वसुनन्दि-श्रावकाचार में श्रावकाचार का निर्धारण ग्यारह प्रतिमाओं को आधार मानते हुए. हुआ है। किन्तु पंडित आशाधर द्वारा रचित सागारधर्मामृत में श्रावकधर्म पक्ष, निष्ठा तथा साधन पर अवलम्बित है। इस पद्धति का श्रीगणेश जिनसेनकृत आदिपुराण में हुआ है, जहां पर पक्ष, निष्ठा या चर्या तथा साधन को हिंसा की शुद्धि के तीन उपायों के रूप में प्रस्तुत किया गया है । इस प्रकार जैनाचार्यों ने श्रावकाचार को तीन तरह से प्रतिपादित किया हैः बारह व्रतों के आधार पर, ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर तथा पक्ष, निष्ठा आदि के आधार पर। किन्तु इन तीन पद्धतियों में मूलतः कोई अन्तर नहीं पाया जाता । बारह व्रतों को धारण करनेवाला श्रावक आत्मा की विशेष शुद्धि के लिये ग्यारह प्रतिमाओं को भी धारण करता है, और पक्ष, चर्या तथा साधन तो उनकी आचार-मर्यादा के तीन भेद ही कहे जा सकते हैं। बारह व्रतों में प्रथम पांच को अणुव्रत, छठे, सातवें एवं आठवें को गुणव्रत तथा अन्तिम चार यानी नवें, दसवें, ग्यारहवें एवं बारहवें को शिक्षाव्रत कहते हैं। अणुव्रत :
श्रावक के बारह व्रता म प्रथम पांच को अणुव्रत कहते हैं। इन्हें श्रावक या श्रावकधर्म के मूलगुण भी कहते हैं । चूकि पांच महाव्रतों, जो श्रमणों के द्वारा पालन किये जाते हैं, से ये लघु हैं, इन्हें अणुव्रत कहते हैं। इनमें अहिंसादि का पूर्णरूपेण पालन नहीं होता, जैसा कि श्रमणों के द्वारा पांच महाव्रतों में होता है। फिर भी ये श्रावकधर्म के प्राण हैं। अतः इन्हें मूलगुण कहा गया है। इनके अलावा जो अन्य व्रत हैं, उन्हें
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