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जैन धर्म में अहिंसा
हिंसा को जननी है | श्रमणों को तो इस कार्य से बिल्कुल वंचित रहने को कहा गया है, लेकिन श्रावकों को सिर्फ अपनी पत्नो तक और श्राविकाओं को अपने पति तक हो अपने को नियंत्रित रखने को कहा गया है ।
इच्छा - परिमाण - इच्छा का विस्तार अनन्त है । यदि इसको नियंत्रित न रखा जाय तो यह मनुष्य को पशु के समान अज्ञानी और दानव के समान भयावह बना दे । जब व्यक्ति अपनो स्वतंत्र इच्छा को अपना पथप्रदर्शक बनाता है तो वह चाहता है कि सबसे अधिक सुखसुविधाएं तथा उनके विभिन्न साधन उसी के पास हों । उसी को सबसे अधिक वैभव प्राप्त हो, सबसे अधिक यश प्राप्त हो और उसी को सबसे अधिक शारीरिक एवं मानसिक आनन्द की उपलब्धि हो । यही है परिग्रहवृत्ति समाज में जो शोषणवृत्ति, पारस्परिक अविश्वास, ईर्ष्याद्वेष, छल, कपट, दु:ख-दारिद्र, शोक संताप, लूट-खसोट आदि देखने को मिलते हैं उनका प्रधान कारण परिग्रहवृत्ति, संग्रहखोरी अथवा संचयबुद्धि है। अर्थात् परिग्रहवृत्ति हिंसा का बहुत बड़ा कारण है । अतएव इससे बचना या इस पर नियंत्रण रखना ही श्रेयस्कर कहा जा सकता है और इसीलिये श्रावकों को इच्छापरिमाण का पाठ पढ़ाया गया है । गायापति आनन्द श्रावकधर्मं को धारण करते हुए कहते हैं कि बारह कोटि ( कोष के लिये चार कोटि, व्यापार के लिये चार कोटि तथा गृह एवं गृहोपकरण के लिए चार कोटि) हिरण्य-सुवर्ण के अतिरिक्त द्रव्यों का मैं त्याग करता हूं। इस प्रकार वे पशु-पक्षी, भूमि, हल, बैलगाड़ी, वाहन, नौका आदि सभी एक निश्चित संख्या में रखकर अधिक का त्याग करते हैं । यह है अपरिग्रह वृत्ति । इसकी परिभाषा प्रस्तुत करते हुए समीचीन धर्मशास्त्र में कहा गया है कि धन-धान्य
१. जैन आचार, डा० मोहनलाल मेहता, पृष्ठ १०२.
२. ताणंतरं च ण इच्छाविहिपरिमाणं करेमाणं हिरसणसुवरण विहि परिमाणं करेइ, नन्नत्थ चउहिं हिरणकोडीहिं निहाण पउत्ताहिं, चउहिं वुड्ढि उत्ताहि, चउहिं पवित्थर पउत्ताहिं, अवसेसं सव्वं हिरण्णसुवणविहिंपच्चक्खामि ॥। १७ ।।
- उपा०सू०प्र०अ०
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