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जैन धर्म में अहिंसा अतः इन बातों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि हिंसा को रोकने के लिये दिग्वत का पालन करना अनिवार्य है।
उपभोगपरिभोग-परिमाणवत या भोगोपभोगपरिमाणबत-जिस वस्तु का उपयोग एक ही बार होता है, उसे उपभोग तथा जिसका उपभोग बार-बार होता है, उसे परिभोग कहते हैं और जब इस उपभोग-परिभोग पर नियंत्रण हो जाता है, यानी यह निश्चित कर दिया जाता है कि सिर्फ अमुक वस्तु ही काम में लायी जायेगी तब उसे उपभोगपरिभोग परिमाणवत कहते हैं । इस ब्रत में अहिंसावत की रक्षा अच्छी तरह होती है क्योंकि इससे व्यक्ति के मन में संतोष होता है, जो उसे अहिंसा की ओर ले जाता है। उपभोगपरिभोग परिमाणवत के निम्नलिखित लक्षण या विधियां हैं :
१. उद्वणिका-विधि-भींगे शरीर को पोंछनेवाले वस्त्र अंगोछे आदि की संख्या को निश्चित करना। गाथापति आनन्द ने श्रावकधर्म को धारण करते हुए सिर्फ 'गन्धकषाय' नामक वस्त्र को छोड़कर अन्य सभी अंग पोंछने के काम में आनेवाले वस्त्रों का त्याग किया । .
२. दन्तधावन विधि-दांत साफ करने या मंजन आदि की मर्यादा निश्चित करना, जैसे आनन्द ने किसी मधुयष्टि यानी मुलहठी के अतिरिक्त दूसरे दातूनों का त्याग किया। ___३. फलविधि-श्रावक के द्वारा यह निर्धारित करना कि वह
१. भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः। उपभोगोशन-वसनप्रभृतिः पांचेन्द्रियोविषयः ॥१७॥८॥
-समीचीन धर्मशास्त्र. २. तयाणंतरं च णं उवभोगपरिभोगविहिं पच्चक्खाएमाणे उल्लणिया
विहिपरिमाणं करेइ । नन्नत्थ एगाए गंध-कासाइए, अवसेसं सव्वं उल्लणियाविहिं पच्चक्खामि ॥ २२ ॥
-उपासकदशांग सूत्र , प्र० अ० ३. नन्नत्य एगेणं अल्ललट्ठी सहुएणं, अवसेसं दंतवणविहिं पच्चक्खामि ॥२३॥
-उपासकदशांग सूत्र, प्र० अ०
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