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जैन धर्म में अहिंसा कि गृहस्थ खेती करता है और खेती में स्थावर प्राणियों की हिंसा होती है, यह निश्चित है । यदि स्थावर प्राणियों की हिंसा से भी गृहस्थ को वंचित रहने को कहा जाय तो खेती हो नहीं सकती और खेतीन होगी तो अन्य प्राणियों का जीवित रहना दुर्लभ हो जायेगा। इसके अलावा स्थूल हिंसा के समर्थन के लिये भी परिस्थिति विशेष में वह स्वतंत्र है और इसी को श्रावक की देशवरति कहते हैं । गृहस्थ कोई भी काम करने में सावधान रहता है कि किसी भी जीव को किसी प्रकार का कष्ट न हो। फिर भी यदि किसी जीव का घात हो जाता है तो ऐसी हिंसा के लिये वह दोषो नहीं होता अर्थात् उसका अहिंसाव्रत भंग नहीं होता। किन्तु कभी-कभी प्रमादवश या अज्ञानवश हिंसा हो जाती है जो दोषजनक होती है और व्रत को भंग कर देती है। इस प्रकार पैदा हुए दोष को अतिचार कहते हैं । स्थूल प्राणातिपात-विरमण के पांच अतिचार हैं : बन्ध, वध, छविच्छेद, अतिभार, भक्तपानव्युच्छेद ।। __बन्ध-बन्ध का अर्थ है त्रस प्राणियों को कठिन बन्धन से बांधना या उनके गन्तव्य स्थान पर जाने से उन्हें बलपूर्वक रोकना। पशुओं तथा दासों को इस प्रकार बांधना कि उन्हें कष्ट पहुंचे । बन्ध के दो प्रकार हैं अर्थबन्ध तथा अनर्थबन्ध । अनर्थबन्ध हिंसा है जो अनर्थदण्ड नामक व्रत के साथ आती है और अर्थबन्ध भी यदि क्रोधवश किया जाये तो उसे हिंसा ही कहेंगे। अर्थबन्ध भी दो प्रकार के होते हैं-सापेक्ष और निरपेक्ष । भय उत्पन्न होने पर जिस बन्ध से स्वतः मुक्ति मिल जाये उसे सापेक्ष तथा भय की दशा में भी मुक्ति न देनेवाला बन्ध निरपेक्ष कहलाता है। निरपेक्ष बन्ध अतिचार की श्रेणी में आता है।
वध-वध का सामान्य अर्थ होता है हत्या। किन्तु उपासकदशांग सूत्र का सम्पादन करते हुए डा० इन्द्रचन्द्र शास्त्री ने कहा है
१. तयाणंतरं च णं थूलगस्स पाणाइवायवेरमणस्स समणोवासएणं पंच
अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा । तं जहा-बंधे, वहे, छविच्छेए,अहभारे, भत्तपाणवोच्छेए ॥४२॥ उपासकदशांग प्र० अ
समीचीन धर्मशास्त्र, अ०३. ८. २. उपासकदशांग सूत्र, पृष्ठ ५१.
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