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जैन धर्म में अहिंसा
लालजी) । मोक्ष के अक्षय निवास को देनेवाली है (घवरचन्द बाँठिया) ।
३५. अणासव - अनाश्रव : अहिंसा कर्म-बन्धन को रोकने वाली है अतः यह अनाश्रव कही जाती है ।
३६. केवली-ठाण - केवलि-स्थान : केवलज्ञानी वही होता है जो अहिंसक होता है, केवलज्ञानी इसका आश्रय लेते हैं । अतः यह केवलीस्थान कही जाती है |
३७. सिव - शिव : जो अहिंसक होता है उसे किसी भी उपद्रव का भय नहीं होता है । अर्थात् अहिंसा निरुपद्रव होने का कारण बनती है । इस वजह से इसे शिव कहते हैं ।
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३८. समिई – समिति - सम्यक् प्रवृत्ति: चूंकि यह सम्यक् प्रवृत्तिरूप होती है, अतः इसे समिति कहते हैं ।
३९. सील - शील समाधि : अहिंसा समाधान या समाधि का कारण बनती है अत: यह शील कहलाती है ।
४०. संजम - संयम : हिंसा - निवृत्तिरूप है अर्थात् हिंसा - निवारण, जो संयम है, उसका यह साधन है इसलिये इसे संयम नाम से संबोधित करते हैं ।
४१. सोलघर - शीलगृह : सदाचार या ब्रह्मचर्य आदि का यह स्थान है यानी चारित्र का यह गृह है, इसलिये इसे शीलगृह कहते हैं ।
४२. संवर - आश्रव अर्थात् कर्मों के बन्ध को रोकनेवाली है, अतएव यह संवर नाम से संबोधित होती है ।
४३. गुत्ती - गुप्ति : अहिंसाव्रत के पालन से जीवों की अशुभ प्रवृत्तियाँ रुक जाती हैं, अत: इसे गुप्ति कहा जाता है |
संवरद्वारे अहिंसाया नामानि ) । ३५. कर्मबन्धननिरोधोपायत्वात्, ३६. केवलीनामहिंसैव तत्रव्यवस्थितत्वात्, ३७. निरुपद्रवहेतुत्वात्, ३८. सम्यक प्रवृत्तिरूपत्वात् ३६. समाधानरूपत्वात्, ४०. हिंसोपरतत्वात् . ४१. शीलं सदाचारो ब्रह्म वा तस्य गृहं चारित्रस्थानं, ४२. संवरश्च प्रतीतानाश्रवत्वेन, ४३. अशुभानां मनःप्रभृतीनां रोधः,
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