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जैन दृष्टि से अहिंसा
जयाचार्य के इस विचार का खण्डन करते हुए जवाहिरलालजी सद्धर्ममण्डन में कहते हैं कि गरीब, दुःखी प्राणियों को दयावश दान देना श्रावकों के धर्मानुकूल है, इसलिये आनन्द ने अनुकम्पादान का त्याग नहीं किया था । उसके शब्दों में सर्वज्ञभाषितधर्म से भिन्न धर्म की प्रतिष्ठा करनेवाले, अज्ञानी चरक परिब्राजक आदि को आहारादि न देने की घोषणा मिलती है, अनुकम्पा या करुणा के कारण गरीब, दुःखी, असहाय प्राणियों को दान न देने की नहीं । अन्य यूथिक को गुरुबुद्धि से दान न देने का उसने व्रत लिया था, करुणावश दान न देने का नहीं । '
वाद
दूसरे बोल में जयाचार्यजी का कहना है कि यदि कोई कहता है कि आनन्द ने अन्यतीर्थी को दान न देने का व्रत लिया, असंयति को दान न देने का नहीं अर्थात् अन्यतीर्थियों को दान देना पाप है, असंयतियों को दान देने में पाप नहीं है । और यदि असंयतियों को दान देने में पाप है तो उसके लिये शास्त्रीय प्रमाण क्या हो सकता है ? इस संबंध में प्रमाणस्वरूप वे भगवतीसूत्र में उल्लिखित महावीर - गौतम को प्रस्तुत करते हैं, जहाँ महावीर ने कहा है कि असंयति को दान देने से एकान्त पाप होता है, निर्जरा बिल्कुल ही नहीं होती । इसका खण्डन करते हुए जवाहिरलालजी कहते हैं कि अन्य तीर्थियों या असंयतियों को गुरुबुद्धि से दान देने का शास्त्र अवश्य निषेध करता है, किन्तु करुणावश दान देने का विरोध कभी भी नहीं करता । इसके सबूत में वे कहते हैं कि राजा प्रदेशी जिसका वर्णन राजप्रश्नी में किया गया है, आनन्द श्रावक के समान ही अभिग्रहधारी समकित सहित बारह व्रतधारी था । लेकिन व्रतधारण करने के बाद भी वह दयावश दानशाला खोलकर हीन दीन प्राणियों को दान देता था । व्रतधारण करते समय राजा प्रदेशो ने मुनि केशीकुमार से कहा था कि मैं सात हजार गांवों को चार हिस्सों में बांटकर एक बलवाहन, दूसरा कोष्टागार, और तासरा अन्तःपुर के लिये रखूंगा । शेष चौथे भाग से दानशाला का निर्माणकर, उसमें नौकरादि रखकर तथा
१. सद्धर्ममण्डन - जवा वाहिरलालजी - बोल १, पृ० ६४.
२. भगवतीसूत्र, शतक ८, उद्द े ६.
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