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जैन धर्म में अहिंसा अशन, पान, खाद्य तथा स्वाद्य आग्रहपूर्वक देना नहीं कल्पता। किन्तु राजाभियोग, गणाभियोग, सेनाभियोग, देवताभियोग, माता-पिता आदि गुरुजनों के आग्रह, तथा अरण्यादि में वृत्ति के लिये लाचार होने की स्थितियों को अपवादरूप समझें यानी इन अवस्थाओं में पूर्वकथित शपथ का पालन नहीं हो सकेगा। आज से मुझे श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक ऐषणिक अशन, पान, खाद्य, वस्त्र परिग्रह, पाद-प्रोञ्छन, पीठ, फलक, शय्या संथारा, और औषध भेषज आदि प्रदान करते हुए विचरना कल्पता है अर्थात् ऐसा करना मेरे लिये उचित है और मैं करूंगा।
गाथापति आनन्द के इस व्रतधारण में भ्रमविध्वंसनकार की दृष्टि जाती है कि आनन्द ने निर्ग्रन्थों को छोड़कर अन्य तीर्थियों को दान आदि न देने का अभिग्रह धारण इसलिये किया कि हीन, दीन, दुःखी जीवों पर दया करने से पुण्य नहीं होता, बल्कि एकान्त पाप होता है। क्योंकि दोन - दुःखियों पर दया करने से यदि पुण्य होता तो वह अपने व्रत में निर्ग्रन्थों के साथ-साथ अन्य लोगों को भी दान देने का व्रत लेता। १. तएणं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचा
गुम्बइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं सावयधम्म पडिवज्जहत्ता समणं भगवं महावीरं वंदह नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी नो खलु मे कप्पह अज्जप्पभिरं अन्न उत्थिय वा अन्नउस्थियदेवयाणि वा अन्नउस्थिय परिग्गहियाणि चंइयाई वा वंदितए वा, नमंसित्तए वा, पुटिव अणालत्तेण आलवित्तए वा, संलवित्तए वा, तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा नन्नत्य रायाभिओगेणं, गणाभिओगेणं, बलाभिओगेणं देवयाभियोगेणं, गुरुनिग्गहेणं वित्तिकन्तारेणं । कप्पह मे समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्यपरिग्गहपायपुच्छणेणं पीठफलगसिज्जासंथारएणं ओसहमेसब्जेणं पडिलामेमाणस्स विहरित्तएत्ति कटु इमं एयास्वं अभिग्गहं पडिगिरिहह अभिगिएहत्ता पसिणाई पुच्छर, पुच्छित्ता अट्ठाई
आदियई । उपा०, अ० १,सूत्र ५५. २. अमविध्वंसनम्-जयाचार्य-दानाधिकार, बोल १, पृष्ठ ५२-५३.
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