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जैन धर्म में अहिंसा ऐसा करने से नरक की प्राप्ति होती है, दीन-दुःखी प्राणियों को अनु. कम्पादान देने का निषेध नहीं किया। इसके अलावा भी आर्द्रकुमार के शब्दों में दयाधर्म के विरोधी के लिये एक हेयभावना का रूप मिलता ही है। ___ इस प्रकार ज्ञातासूत्र में वर्णित नन्दन मनिहार का नरक जाना, ठाणांग में तपस्वी, क्षपक, रोग आदि से ग्रस्त प्राणी एवं नवदीक्षित शिष्य पर अनुकम्पा करने का विधान, उपासकदशांग (अध्ययन-3) में सकडाल पुत्र श्रावक का गोशालक मंखलिपूत्र को शय्या संथारा आदि देना, विपाकसूत्र ( अ०१), उत्तराध्ययन । अ० १२ गाथा २४) आदि उदाहरणों को प्रस्तुत करते हुए यह खण्डन-मण्डन किया गया है कि अनुकम्पादान से पुण्य होता है या पाप ।
सामान्य दृष्टि से अनुकम्पा को पुण्यजनक ही कहा जा सकता है। अहिंसा क्यों ?
_ 'सव्वे अक्तदुक्खा य, अओ सव्वे अहिसिया' । सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय मालूम होता है या
'अज्झत्थं सव्वको सव्वं, विस्स पाणे पियायए।
ण हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए ॥७॥ सभी प्राणियों को सुख प्रिय तथा दुःख अप्रिय लगता है, सबको अपनी आत्मा प्यारी होती है, ऐसा जानते हुए भय और वैर से मुक्त होकर किसी भी जीव की हिंसा न करनी चाहिये।
हिंसा को त्यागने और अहिंसा को अपनाने का यह सर्वविदित कारण है और सामान्यतौर से लोग यही समझते भी हैं कि हिंसा करने से अन्य प्राणियों को कष्ट पहुँचता है, अतः किसी को कष्ट पहुंचाना
१. सद्धर्ममण्डन, दानाधिकार, बोल ५, पृष्ठ १०६-१०७. २. वही दानाधिकार, बोल ८, ९, १७, १८, १६.
भ्रमविध्वंसनम् तथा सद्धर्ममण्डन के दानाधिकार पूर्णरूपेण देखें । ३. सत्रकृतांग, प्र० श्र० लोकवादनिरासाधिकार, गाथा ९, ४. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन ६.
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