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जैन धर्म में अहिंसा
चतुर्विध आहार तैयार करवाकर श्रमण, माहन, भिक्षु एवं राहगीरों को भोजन करता हुआ तथा शील, प्रत्याख्यान, पोषध, उपवास आदि करता हुआ विचरूंगा' । इससे भी यह स्पष्ट होता है कि दान में पाप नहीं होता ।
किन्तु राजा प्रदेशी के व्रतधारण के वचन सुनकर मुनि केशीकुमार का चुप रह जाना शंका पैदा कर देता है । जयाचार्यजी यहां कहते हैं कि यदि अनुकम्पादान में पुण्य होता है तो राजा प्रदेशी के शब्दों को सुनकर केशीकुमार ने मौन धारण क्यों कर लिया ? उन्होंने ऐसा क्यों नहीं कहा कि राज्य के चार भागों के द्वारा विभिन्न चार कार्यों को करने से तुम्हें प्रथम तीन में पाप की प्राप्ति होगी और चौथे यानी दानशाला की प्रतिष्ठा करने से पुण्य होगा । इसका खण्डन करते हुए जवाहिरलाल जी कहते हैं कि मुनि केशीकुमार का चुप रहना यह इंगित नहीं करता कि अनुकम्पादान में एकान्तपाप होता है । क्योंकि यदि अनुकम्पादान में पाप होता तो केशीकुमार वहाँ चुप नहीं रहते बल्कि धर्मोपदेश देकर वे राजा प्रदेशी को पापजनक कार्य करने से रोकते यानी दानशाला की प्रतिष्ठा करने से रोकते । क्योंकि यह साधु का कर्तव्य होता है कि उनके सामने कोई हिसाजनक कार्यं करने का विचार करे तो वे उसे रोकें, समझावें । किन्तु केशीकुमार राजा के शब्दों को सुनकर चुप रह गये । इससे मालूम होता है कि अनुकम्पा दान हिंसादि पाप जनक कार्यों की श्रेणी में नहीं है । ३
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१. अहं णं सेयंवियाप्प मोक्खाइं सत्तग्गामसहस्साइं चत्तारिभागे करिस्सामि । एगे भागे बलवाहणस्स दलइस्सामि, एगे भागे कोडागारे दलइस्लामि एगे भागे अन्तेउरस्त दल इस्सामि, एगेणं भागेणं महइ महालियं कूडागारसालं करिस्यामि तत्थणं बहुहिं पुरिसेहिं दिण्णभत्तिभत्तवेयणेहिं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता बहूणं समणमाहणभिक्खुयाणं पंथियपहियाणय परिभायमाणे बहुहिं सीलावर पञ्चक्खाण पोसहोववासेहिं जाव विहरिस्सामि । ति कट्टु जामेव दिसिं पाउन्मुए तामेव दिसिं पडिगए ।
- अमोलक ऋषि संपा० - राजप्रश्नीय, पृ० २८३-८५. २. भ्रमविध्वंसनम्, दानाधिकार, बोल १४, पृष्ठ ७४-७५. ३. सद्धर्मण्डन, दानाधिकार, बोल ३, पृष्ठ १००.
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