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जैन दृष्टि से अहिंसा
१६५ बहुत ही प्रसिद्ध विकल्प है। इसके संबंध में बहुत लम्बे-लम्बे व्याख्यान तथा बृहद् वाद-विवाद मिलते हैं। भगवती सूत्र के टोकाकार ने ऐसा लिखा है कि यद्यपि इस विकल्प के संबंध में गौतम स्वामी ने प्रश्न नहीं किया है और भगवान महावीर ने भी यहां पर कुछ कहा नहीं है, लेकिन व्याख्याप्रज्ञप्ति में ऐसा उल्लेख है कि
मोक्खत्थं जवाणं तं पइ एसो विहो समक्खाओ।
अणुकंपा वाणं पुण जिहि न कयाह पडिसिद्ध। अर्थात् मोक्ष प्राप्ति हेतु जो दान किया जाता है, उसके संबंध में भगवतीसूत्र में तीन विकल्प बताये गये हैं, अनुकम्पादान के संबंध में ऐसी बात नहीं है। महावीर ने अनुकम्पादान का कभी भी निषेध नहीं किया। अतः अनुकम्पादान देना चाहिये।
अनुकम्पादान के विषय में तेरापंथ का अपना एक विशेष मत है। इन लोगों के अनुसार अनुकम्पादान से एकान्त पाप होता है, क्योंकि अनुकम्पादान असंयति-दान को श्रेणी में आता है और असंयतिदान से एकान्त पाप होता है । इस मत की पुष्टि पूर्णरूपेण जयाचार्य ने 'भ्रमविध्वंसनम्' के दानाधिकार में की है। अपने मत के समर्थन में इन्होंने आगमों को उद्धृत किया है, जिनके विवेचन एवं विश्लेषण अपने मंतानुकूल प्रस्तुत किये हैं। परन्तु उन्हीं उदाहरणों को प्रस्तुत करते हुए जवाहिरलालजी ने सद्धर्ममण्डनम् में जयाचार्यजी यानी तेरापन्थ के दान संबंधी मत का पूरा खण्डन किया है तथा यह बताया है कि अनुकम्पादान एकान्त पाप का साधन नहीं, बल्कि पुण्य का साधन है और श्रावक के लिये अनुकम्पादान करना उचित है, धर्मानुकूल है। इस खण्डन-मण्डन को हम निम्नलिखित ढंग से समझ-बूझ सकते हैं :
प्रथम उदाहरण उपासकदशांगसूत्र के प्रथम अध्ययन से लिया गया है जिसमें गाथापति आनन्द महावीर के पास पाँच अणुव्रत, सात शिक्षा व्रत यानी बारह प्रकार के श्रावकधर्म को पालने का वचन व्यक्त करके कहते हैं कि हे भगवन् ! आज से निर्ग्रन्थ संघ के अलावा दूसरे संघवालों को, अन्य यूथिक देवों को तथा दूसरे यूथिकों द्वारा स्वीकृत चैत्यों की वन्दना करना या नमस्कार करना, उनके बिना बोले ही बोलना, उनको १. व्याख्याप्रज्ञप्ति : अभयदेवीया वृत्ति, शतक ८, उद्देश ६, पृष्ठ ६८५.
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