________________
जैन दृष्टि से अहिंसा
१८७ अहिंसा के प्रकार :
प्रधानतौर से अहिंसा के दो प्रकार होते हैं - १. निषेधात्मक और २. विधेयात्मक । निषेध का अर्थ होता है किसी चीज को रोकना, न होने देना । अतः निषेधात्मक अहिंसा का मतलब होता है किसी भी प्राणी के प्राणघात का न होना या किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट न देना। अहिंसा का निषेधात्मक रूप ही अधिक लोगों के ध्यान में आता है । किन्तु अहिंसा सिर्फ कुछ विशेष प्रकार की क्रियाओं को न करने में ही नहीं होती बल्कि कुछ विशेष प्रकार की क्रियाओं के करने में भी होती है, जैसे दया करना, सहायता करना, दान करना आदि । यही सब क्रियायें विधेयात्मक अहिंसा कहलाती हैं। आचारांग, सूत्रकृतांग, प्रश्नव्याकरण सूत्र, आवश्यक सूत्र आदि में जो षटकायों को तीन करण तीन योग से घात न पहुँचाने का सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है, जिसे हमलोगों ने समझने का प्रयास भी किया है, वही अहिंसा का निषेधात्मक रूप है। अतः अब हमलोग अहिंसा के विधेयात्मक रूप को समझने की कोशिश करेंगे। दया :
प्रश्नव्याकरण सूत्र में जहाँ पर अहिंसा के साठ नाम बताये गये हैं, वहाँ पर 'दया' को अहिंसा के ग्यारहवें नाम के रूप में प्रस्तुत किया गया है। अहिंसा से प्राणियों की रक्षा होती है, अर्थात् यह जीवों के प्राणों के उपमर्दनकृत्य से रहित होने के कारण दयारूप है।' दया के लिए 'अनुकम्पा' 'करुणा' आदि शब्द भी व्यवहृत होते हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने करुणा भावना को परिभाषित करते हुए कहा है
दीनेष्वार्तेषु भीतेषु याचमानेषु जीवितम् ।
प्रतोकारपरा बुद्धिः कारुण्यमभिधीयते ॥ १२० ॥२ अर्थात् जो गरीब हैं, या दुःखदर्द से संतप्त हैं, या भयभीत हैं, या प्राणों की भीख मांगते हैं, ऐसे प्राणियों के कष्ट निवारण की भावना का होना ही करुणा भावना है। १. प्रश्नव्याकरण-द्वितीय श्रुतस्कन्ध, अहिंसा अध्ययन, प्रथम संवरद्वार । २. योगशास्त्र, चतुर्थ प्रकाश ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org