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जैन दृष्टि से अहिंसा जीव के कुल, योनि, मार्ग, स्थान आदि की जानकारी करके उसके आरम्भ से बचना ही प्रथम व्रत है या अहिंसा है। इस परिभाषा का ही एक बृहद्रूप मूलाचार में मिलता है
कार्योदयगुणमग्गणकुलाउजोणिसु सधजीवाणं ।
णाऊण य ठाणविसु हिंसावि विवज्जणहिंसा ॥ काय, इन्द्रिय, गुगस्थान, मार्गणास्थान, कुल, आयु, योनि इनमें सब जीवों को जानकर कायोत्सर्गादि क्रियाओं में हिंसा आदि का त्याग अहिंसा महाव्रत कहलाता है। योगशास्त्र में कहा गया है
न यत्प्रमादयोगेन जीवितव्यपरोपणम् ।
प्रसानां स्थावराणाश्च तदहिंसावतं मतम् ॥ प्रमाद के वशीभूत होकर त्रस ( द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ) अथवा स्थावर (पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति काय के ) प्राणियों का हनन न करना अहिंसा व्रत है। ___ ध्यानपूर्वक देखने पर इन सभी परिभाषाओं में कुछ न कुछ अन्तर अवश्य मिलता है। किसी में अहिंसा के कारण पर तो किसी में जीव के विभिन्न प्रकारों पर तो किसी में हिंसा के विभिन्न प्रकारों को दिखाते हुए उनके अपेक्षित बचाव पर प्रकाश डाला गया है। यह अन्तर इसलिये नहीं है कि ग्रन्थकारों के विचारों में अन्तर है, बल्कि शायद इसलिये है कि आचार्यों ने इसे परिभाषित करने का प्रयास ही नहीं किया है। एक उपदेश के रूप में जिसने जिस अंश को अधिक महत्वपूर्ण समझा है उसी पर बल दिया है। ऐसा इसलिये कहा जा सकता है कि आगमों में महावीर के ही वचन हैं और यदि आचार्यों ने कुछ बातें कही भी हैं तो महावीर द्वारा उपदेशित सिद्धान्त के आधार पर ही कही हैं।
१. मूलाचार, मूलगुणाधिकार १, गाथा ५, पृष्ठ ३. २. योगशास्त्र-सं० मुनि समदर्शी, प्र. प्रकाश, श्लोक २, पृष्ठ १०.
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