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जैन दृष्टि से अहिंसा
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६०. निम्मलतर - निर्मलतर : अहिंसा के प्रादुर्भूत होते ही सभी कर्म - रज हट जाते हैं और जीव निर्मल हो जाता है, अतः इसे निर्मलतर कहते हैं ।
अहिंसा की परिभाषा :
अतः
सामान्यतौर से किसी भी वस्तु को दो तरह से परिभाषित किया जाता है - व्यावहारिक ढंग से एवं वैज्ञानिक ढंग से । व्यावहारिक परिभाषा के शब्द वस्तु-संबंधी सभी बातों पर प्रकाश नहीं डालते, उन्हें पूर्णतः समझने के लिए उनमें कुछ बातें मिलानी पड़ती हैं, तथा विषय के आधार पर कुछ अनुमान भी करना पड़ता है । किन्तु वैज्ञानिक परिभाषा, जिसे परिभाषा का सही रूप समझा जाता है, वस्तु संबंधी सभी बातों को अपने शब्दों द्वारा स्पष्ट कर देती है, वस्तु की एक सीमा निर्धारित कर देती है; इसमें न तो परिभाषित वस्तु का कोई अंश छूट पाता है और न कोई अनावश्यक बात मिला ही ली जाती है | अहिंसा के साथ भी ऐसी ही बात पाई जाती है अर्थात् इसकी भी व्यावहारिक तथा वैज्ञानिक परिभाषायें हैं ।
आचारांग में कहा है
सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा न हंतव्या न बज्जावेयब्वा, न न परियावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा, एस
सव्वे सत्ता, परिधित्तव्या, धम्मे सुद्धे ।
अर्थात् - सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्वों को न मारना चाहिये, न अन्य व्यक्ति के द्वारा मरवाना चाहिये, न बलात्कार से पकड़ना चाहिए, न परिताप देना चाहिये, न उन पर प्राणापहारउपद्रव करना चाहिये, यह अहिंसारूप धर्म ही शुद्ध है ।"
६०. कर्मरजोरहितं ....(ज्ञान वि०सू०), सकलकर्मम लवर्जितत्वात् (घा० ला०) ।
१. आचारांगसूत्र - आत्मारामजी, प्रथम श्र तस्कंष, चतुर्थ अध्ययन, उद्द ेशक १, पृष्ठ २७०.
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