________________
जैनेतर परम्पराओं में अहिंसा अग्निषोमीयं पशुमालभेत-१. हिंसा यज्ञ में उपयोगी है।
२. हिंसा अनर्थकारिणी है। किन्तु दो-दो अर्थ होने से वाक्यों में 'वाक्यभेद दोष' आ जाएगा, जिसे मीमांसक भी मानते हैं। यदि वाक्यभेद दोष को न भी माना जाए तो भी इन दोनों अर्थों में कोई भेद नहीं है--हिंसा यज्ञ के लिए आवश्यक है और हिंसा पापजनक है। और ऐसा सिद्ध हो जाने पर यह भी सिद्ध हो जाता है कि आवश्यकरूप से हिंसा आदि का होना यज्ञादि कर्मकाण्डों में अविशुद्धि का कारण है।'
वेदान्त-सिद्धान्ततः (अद्वैत) वेदान्त यह मानता है कि ब्रह्म एक है, दूसरा नहीं, और उसी ब्रह्म के अनेक रूप या अंश हैं तथा ब्रह्म सत्यं जगन मिथ्या ..........."अर्थात् ब्रह्म ही केवल सत्य है, और जो भी है असत्य है । ऐसी हालत में हिंसा-अहिंसा का प्रश्न ही नहीं उठता। क्योंकि हिंसा करने वाला तथा हिंसित होने वाला दोनों ही ब्रह्म ही के अंश हैं। साथ ही यदि सब कुछ सिवाय एक ब्रह्म के असत्य ही है तो हिंसा या अहिंसा जो भी इस जगत में होता हो सब कुछ असत्य ही होगा। किन्तु व्यावहारिक क्षेत्र में अद्वैत वेदान्ती लोग भी हिंसा-अहिंसा को मानते हैं । अतः ब्रह्मसूत्र (३. १. २५) की व्याख्या करते समय शंकराचार्य ने हिंसा एवं यज्ञ के सम्बन्ध का विवेचन किया है। सूत्र है
'अशुद्धमिति चेन्न शब्दात ॥२५।।' अ० ३, पाद १. ___ अर्थात वैदिक यज्ञ-अग्निष्टोम आदि अशुद्ध हैं, क्योंकि इन में पशु-हिंसा होती है। अतः इसके करने वाले दुःखी जीवन प्राप्त करते हैं ऐसा कहना ठीक नहीं है । इसको भाष्यकार शंकर यों कहते हैं
'पशु-हिंसा आदि के योग से यज्ञकर्म अशुद्ध है, उसका फल अनिष्ट हो सकता है, इसलिए अनुशयी जीवों का ब्रीहि आदि रूप से जन्म यदि मुख्यार्थ हो सकता है तो उसमें गौणी कल्पना
अर्थ (प्रयोजन ) रहित होगी, ऐसा जो कहा गया है, उसका १. सांख्यतत्त्वकौमुदी, का० १-२;
सांख्यतत्त्वकौमुदीप्रभा-डा. माद्या प्रसाद मिश्र।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org