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पहिंसा-संबंधी जैन साहित्य आगे चलकर मुनि का आहार, सेवावृत्ति तथा षट्कायों की हिंसा पर प्रकाश डाला गया है। इस तरह प्रवचनसार अपने विभिन्न सूत्रों में श्रमण के चारित्र में अहिंसा का स्थान कितना महत्त्वपूर्ण है यह प्रस्तुत करता है। समयसार:
समयसार के बंधाधिकार में कहा है कि यदि कोई व्यक्ति तैलादि लगाकर धूलिवाली जगह में खड़ा होकर ताड़ वृक्ष, केले का वृक्ष तथा बांस के पिंड को काटता है तो उसे रजबंध होता है, लेकिन यदि तैलादि के बिना वही आदमी अस्त्रशस्त्र से व्यायाम करता है या केले के वक्ष या ताड़ के वक्ष आदि को काटता है तो उसे रजबन्ध नहीं लगता क्योंकि रजबन्ध तो चिकनाहट में होता है जैसे तेल की चिकनाहट । २ १. एकं खलु तं भत्त अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्ध।
चरणं भिक्षेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ॥२६॥ समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिदसमो। समलोठुकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥४१॥ दसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु। एयग्गगदो त्ति मदो सामण्णं तस्स पडिपुण्णं ॥४२॥ उवकुणदि जो वि पिच्चं चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स । कायविराधरणरहिदं सो वि सरागप्पधारणो से ॥४६॥ सूत्र ५०-५१ भी देखें। जह णाम कोपि पुरिसो ऐहभत्तो दु रेणबहुलम्मि । ठाणम्मि ठाइदूण य करेइ सत्थेहिं वायामं ।।२३७।। चिददि भिददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीयो। सचित्ताचित्ताणं करेइ दवाणमुवघायं ॥२३८।।. उवघायं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं । गिच्छयदो चिंतिज्जदु किं पच्चयगो द् रयबंधो ॥२३॥ जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो। णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ।।२४०।। एवं मिच्छादिट्ठी वट्टतो बहुविहासु चेट्ठासु । रायाई उपभोगे कुव्वंतो लिप्पइ रयेण ॥२४१।।
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