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महिंसा-संबंधी जैन साहित्य आचारप्रणिधि नामक आठवें अध्याय के प्रारम्भ में ही फिर से कहा गया है कि जितने भी काय हैं यानी षट्काय, सबमें जीव हैं। अतः मन, वचन और काय से कभी भी इनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए।'
इस प्रकार दशवैकालिकसूत्र के विभिन्न अध्यायों में अहिंसा के विवेचन एवं विवरण, खासतौर से साधु के जीवन से संबंधित, मिलते हैं।
प्रवचनसार :
प्रवचनसार आचार्य कुन्दकुन्द की एक महत्त्वपूर्ण रचना है । इसमें तीन श्रुतस्कन्ध हैं-१. ज्ञानाधिकार जिसमें आत्मा और ज्ञान का एकत्व और अन्यत्व तथा सर्वज्ञत्व की सिद्धि, अशुभ, मोहक्षय आदि का विवेचन है, २. ज्ञेयाधिकार जिसमें द्रव्य, गुण, पर्याय आदि की व्याख्याएँ हैं और ३. चारित्राधिकार जिसमें श्रमण का स्वरूप तथा मुनि के लक्षण आदि बताए गए हैं। इसपर अमृतचन्द्रसूरि और जयसेन ने संस्कृत टीकाएँ लिखी हैं। इसमें सब मिलकर २७५ गाथाएँ हैं।
प्रवचनसार के प्रथम अध्याय ज्ञानाधिकार में मुनि के लक्षणों को बताते हए कहा गया है कि मुनि जीवादि नव पदार्थों को जाननेवाला, अपने और पर के भेद को अच्छी प्रकार जाननेवाला, शुद्धोपयोगवाला, पाँच इन्द्रियों और मन की इच्छा को रोकनेवाला, छः काय जीवों की हिंसा न करनेवाला और अंतरंग तथा बाह्य बारह प्रकार के तप बल से दृढ़ होता है।
१. पुढविदगमगरिणमारुय, तणरुक्खसबीयगा ।'
तसाय पारणा जीवति, इइ वृत्त महेसिणा ।।२।। तेसि अच्छणजोएण, निच्चं होयव्वयं सिया।
मसा काय वक्केणं, एव भवइ संजए ॥३॥ २. सुविदिदपयत्यसुत्तो संजमत वसंजुदो विगदरागो।
समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवनोगो त्ति ॥१४॥
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