________________
पहिंसा-संबंधी जैन साहित्य
१३५ को धारण करने वालों के सभी पाप मिट जाते हैं। जो सच्चे साधु या अनगार या मुनि होते हैं वे अहिंसा, सत्य आदि पांच महाव्रतों को धारण करते हैं तथा हिंसा, असत्य आदि को छोड़ते हैं। वे स्वयं सब कुछ सहते हैं तथा अन्य सभी प्राणियों को सव तरह से बचाते हैं।'
समयसाराधिकार में शास्त्रों का सार प्रस्तुत किया गया है। मुनि के लिए कहा गया है कि यदि वह सम्यक् चारित्र पालना चाहता है तो वह भिक्षाटन करके भोजन करे, वन में रह दुःख को सहे, मैत्रीभाव का चितवन करे। साधु के लिए आवश्यक है कि मयूरपिछी रखे क्योंकि अत्यन्त छोटे द्वीन्द्रिय, जीव आदि चक्षु से दिखाई नहीं पड़ते, अतः अपनी उपयोगी जगहों को वह मयूरपिछी से साफ कर सकता है। साधु चारित्र को भंग नहीं करता, व्यवहारशुद्धि के निमित्त प्रायश्चित्त करता है, वह अहिंसादि व्रतों को कभी नहीं छोड़ता। साधु के लिए क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के कारण हुए परिग्रह से दूर रहने का विधान है। उसे पृथ्वीकाय आदि षट्कायों की रक्षा करनी चाहिए।
इसके विपरीत जो साधु अहिंसादि मूल गुणों को छेदकर वक्षमूलादि योगों को ग्रहण करता है उसके कर्मों का क्षय नहीं होता । स-स्थावर जीवों को मारकर अपनी शक्ति बढ़ानेवाले साधु को नरक गति मिलती है। यदि एक या दो हरिणों को मारने से सिंह नीच-पापी समझा जा सकता है तो अनेक जीवों को अपने अधः कर्मों से नाश करनेवाला साधु तो महापतित ही समझा जाना चाहिए। जो साधु षट्कायों की हिंसा करके अध:
१. अधि० ६, गा० ७६६, ७७०, ७७६, ७८०, ८०१-८०४, ८५३, ८५६
तथा ८६७-८७१. २. गा० ८६५, ६११; गाथाएं ६१२-६१४ और ६६६ तथा १००७-१०१२
भी देखें।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org