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जैन दृष्टि से अहिंसा
१५६ सका। इससे साफ जाहिर होता है कि पंचेन्द्रिय की हिंसा सबसे बड़ी हिंसा और चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय एवं एकेन्द्रिय की हिंसा क्रम से छोटी हिंसाएँ हैं। इसीलिये त्रसकाय की हिंसा का सर्वप्रथम निषेध किया जाता है।
सूत्रकृतांग में उदक पेढालपुत्र तथा गौतम (महावीर के शिष्य) के बीच प्रत्याख्यान-संबंधी वार्तालाप हई है। प्रत्याख्यान करने वाला कहता है-"राजा आदि के अभियोग को छोड़कर (गाथापति चौर ग्रहणविमोक्षण न्याय से ) त्रस प्राणी को दण्ड देने का त्याग है।' इस प्रत्याख्यान में, जैसा कि उदक पेढालपुत्र का कथन है "त्रस" शब्द के साथ "भूत" भी रहना चाहिये, क्योंकि सिर्फ त्रस कहने से यह बात स्पष्ट नहीं होती कि भूत जीव का त्रस या वर्तमान या भविष्य का। क्योंकि जो अभी त्रस है, वह हो सकता अगले जन्म में स्थावर हो जाये या जो पूर्वजन्म में स्थावर था वह इस जन्म त्रस है । अतः "भूत" शब्द को "त्रस" के साथ जोड़ देने पर यानी त्रसभूत कहने से यह बोध हो जाता है कि वर्तमान समय का ही त्रस, भूत और भविष्य का नहीं। और इससे प्रत्याख्यान का सहीसही पालन हो जाता है। किन्तु गौतम के मत में "त्रस" के साथ "भूत" का जोड़ना आवश्यक नहीं होता क्योंकि "त्रस" मात्र कहने से ही वर्तमान के त्रसजीव का बोध हो जाता है। इनके अनुसार प्रत्याख्यान करनेवाला सिर्फ वर्तमान के त्रसकाय की हिसा का
१. पाउसो! गोयमा अस्थि खलु कुमारपुत्तिया नाम समनिग्गंथा तुम्हाणं
पवयणं पवयमाणा गाहावई समणोवासगं उवसंपन्नं एवं पच्चक्खार्वेतिणण्णत्थ अभिप्रोएणं गाहावइचोरग्गहणविमोक्खण्याए तसेहिं पाणेहि णिहाय दंडं, एवं हं पच्चक्खंताणं दुप्पच्चक्खायं भवइ, एवं ण्हं पच्चक्खावेमाणाणं दुपच्चक्खावियव्वं भवइ, एवं ते परं पच्चक्खावेमारणा प्रतियरंति सयं पतिण्णं, कस्स गंतं हेउ ? संसारिया खलु पाणा थावरावि पाणा तसत्ताए पच्चायंति, तसावि । सूत्रकृतांग (सं० अम्बिकादत्त प्रोझा), दूसरा श्रुतस्कन्ध, सप्तम अध्ययन, पृष्ठ ३८५.
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