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जैन दृष्टि से अहिंसा
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चूंकि परिग्रह का लक्षण मूर्छा है, यदि कोई व्यक्ति मूर्छा का सद्भाव रखता है तो वह परिग्रही होगा ही, भले ही वह नग्न ही क्यों न रहता हो। जहाँ-जहाँ मूर्छा होगी वहां-वहाँ परिग्रह होगा ही। यदि कोई ऐसा कहता है कि मूर्छा का संबंध केवल अन्तरंग परिग्रह से है, क्योंकि मूर्छा अन्तरंग परिणामों में से है तो उसका ऐसा कहना सही नहीं होगा, क्योंकि मूर्छा की उत्पत्ति में बाह्य पदार्थ कारण होते हैं। अतः बाह्य पदार्थों में परिग्रहत्व पाया जाता है। किन्तु वीतराग पुरुष के द्वारा बाह्य पदार्थ ग्रहण करने में परिग्रहत्व नहीं पाया जाता, क्योंकि उनमें मूर्छा नहीं पायी जाती। इस प्रकार परिग्रह प्रधानतौर से दो हैं१. अंतरंग और २. बहिरंग । अन्तरंग परिग्रह के चौदह भेद होते हैं-मिथ्यात्व, स्त्री, पुरुष, नपुंसक, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, तथा क्रोध, मान, माया, लोभ । बहिरंग के दो भेद होते हैं-१. अचित्त और २. सचित्त । ये सभी परिग्रह कभी भी हिंसारहित नहीं होते।
१. मूर्छालक्षणकरणात सुघटा व्याप्तिः परिग्रहत्वस्य ।
सग्रन्थो मूर्छावान् विनापि किल शेषसंगेभ्यः ॥११२॥ यद्येवं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोपि बहिरंगः । भवति नितरां यतोऽसौ धत्ते मूर्छानिमित्तत्वम् ॥११३॥ एवमतिव्याप्तिः स्यात्परिग्रहस्येति चेद्भवेन्नैवम् । यस्मादकषायाणां कर्मग्रहणे न मूर्छास्ति ॥११४।। प्रतिसंक्षेपाद्विविधः स भवेदाभ्यन्तरश्च बाह्यश्च । प्रथमश्चतुर्दशविधो भवति द्विविधो द्वितीयस्तु ॥११५॥ मिथ्यात्ववेदरागास्तथैव हास्यादयश्च षड्दोषाः । चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा ग्रन्थाः ॥११॥ अथ निश्चित्तसचित्तौ बाह्यस्य परिग्रहस्य भेदी द्वौ । नेष: कदापि संग: सर्वोऽप्यतिवर्त्तते हिंसां ॥११७॥
-पुरुषार्थसिद्ध युपाय।
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