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जैन दृष्टि से अहिंसा
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का प्राणघात करने के निमित्त चोरी करनेवाले के मन में प्रमाद का प्रादुर्भाव होता है । प्रमाद के कारण सर्वप्रथम उसका स्वतः भावप्राण हिंसित होता है और चोरी प्रकट होने पर उसके द्रव्यप्राण का घात होता है। फिर जिसके इष्ट वस्तु की चोरी होती है, उसके भावप्राण का घात होता है और कभी-कभी उसका द्रव्यप्राण भी हिंसित हो जाता है, क्योंकि चोरी की गई वस्तु उसके द्रव्यप्राण का पोषक होती है। जिस प्रकार इन्द्रिय, श्वासोच्छवासादि जीवन के अन्तःप्राण हैं, उसी प्रकार धन, सम्पदादि बाह्यप्राण हैं यानी बाह्यप्राण के पोषक हैं। अतः चोरी से बाह्यप्राण की हिंसा तो होती ही है, अन्तःप्राण की हिंसा की भी संभावना रहती है और कभी-कभी तो हो भी जाती है। ऐसा कहना कि जहाँ-जहाँ चोरी होती है वहाँ-वहाँ हिंसा होती है, सही नहीं है। प्रमादवश चोरी ही हिंसा की श्रेणी में आती है। इसीलिए वीतराग सर्वज्ञ को चोरी का दोष नहीं लगता, यद्यपि वे द्रव्यनोकर्म वर्गणाओं को ग्रहण करते हैं, जोकि सामान्य ढंग से अदतादान यानी चोरी है, क्योंकि मोहनीय कर्म के अभाव में उनमें प्रमत्तयोगरूप कारण का भी अभाव होता है।
अब्रह्मचर्य-पुरुष, स्त्री और नपुसक-ये तीन वेद हैं यानी तीन जातियां हैं, और इनके रागभावरूप उत्तेजना से जोड़े का सहवास और मैथुन यानी संभोग होता है, जो अब्रह्म कहा जाता है। इस अब्रह्म के सब स्थानों में हिंसा की संभावना रहती है और होती है; जैसे-स्त्री की योनी, नाभि, कुच, कांख आदि । इन स्थानों में सर्वदा सम्मर्छन पंचेन्द्रिय जीव पैदा होते रहते हैं। अतः मैथुन में द्रव्य प्राणों का विनाश तो होता ही है । काम भाव
अर्थानाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुसाम् । हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ॥१०॥ हिंसायाः स्तेयस्य च नाव्याप्ति: सुघट एव सा यस्मात् । ग्रहणे प्रमत्तयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यैः ।।१०४।। नातिव्याप्तिश्च तयोः प्रमत्तयोगैककारणविरोधात् । मपि कर्मानुग्रहगे नीरागाणामविद्यमानत्वात् ॥१०५१
-पुरुषार्थसियुपाय ।
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