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जैन दृष्टि से अहिंसा
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इस प्रकार सूत्र कृतांग तथा उपासकदशांग को देखने से पता लगता है कि स्थूल प्राणातिपात का हिंसा की दृष्टि से अधिक महत्त्व है वजाय सूक्ष्म प्राणातिपात के । इसका मतलब है कि हिंसा में स्तर होता है। अतः ऐसा कहा जाता है कि स्थलकाय की हिंसा सबसे बड़ी हिंसा है क्योंकि उसमें कषाय की मात्रा बढ़ जाती है, अर्थात् हिंसक को अपने दिल-दिमाग को अधिक कठोर और क्रूर बनाना पड़ता है । किन्तु यहां पर ऐसी भी आशंका उपस्थित की जा सकती है कि मछुए को मछली मारने में या कसाई को अनेकों पशुओं को मारने में किसी विशेष प्रमाद की आवश्यकता नहीं होती। वे सब स्वाभाविक ढंग से नित्य अनेक प्राणियों का बध करते हैं। लेकिन यह एक विशेष जाति की बात है। मछए का लड़का बचपन से ही अपने घर में अपने परिवार के लोगों के द्वारा अनेक मछलियों का प्राणघात देखता है, वैसे ही एक कसाई का लड़का अपने पिता, चाचा, काका, भाई-बन्धु के द्वारा रोज बहुत से पशुओं का प्राणान्त देखता है। अतः मछए और कसाई के बच्चों का यह एक स्वभाव सा बन जाता है और हिंसा करने में उन्हें प्रमाद-विशेष की जरूरत नहीं होती है । किन्तु किसी भी बात को सही-सही जानने के लिए एक सामान्य स्थिति की जरूरत होती है, अर्थात् जो एक सामान्य व्यक्ति है वह बिना किसी प्रमाद के हिंसा कर ही नहीं सकता। प्रमाद या कषाय ही हिंसा की जननी है और इसकी मात्रा ही हिंसा के स्तर को निर्धारित करती है ।'
हिंसा करने वाले कुछ विशेष लोग तथा जातियाँ
प्रश्नव्याकरण सूत्र में निम्नलिखित व्यक्तियों तथा जातियों के वर्णन मिलते हैं जिन्हें हिंसा करने में आनन्द मिलता है और हिंसा करना जिनका स्वभाव-सा बन गया है :
१. अहिंसा-दर्शन, पृ० १११-१२५.
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