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अहिंसा-संबंधी जैन साहित्य समान तथा हिंसारहित जो आचरण है या सभी क्षेत्रों में हानि-लाभ रहित कायोत्सर्गादि के परिणामरूप जो आचरण है, वही समाचार है।' आगे आर्यकायों के गणधरों की विशेषता दिखाते हुए कहा है कि उन्हें प्रियधर्म या क्षमाधर्म को अपनानेवाला होना चाहिए।
पंचाचाराधिकार में सम्यग्दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार के कृत, कारित एवं अनुमोदित अतिचारों पर प्रकाश डाला गया है। __मूलाचार के पंचम अधिकार में वैदिकधर्म की आलोचना की गई है, क्योंकि इसमें यज्ञादि कर्मों में पशुओं की बलि देकर हिंसा की जाती है और इस हिंसा को भी धर्म का अंश माना जाता है। यह आलोचना चार विभागों में विभक्त है-१. लौकिक मूढ़ताचाणक्यनीति, चार्वाक के उपदेश तथा यज्ञादि में हिंसा को धर्म मानना आदि, २. वैदिक मूढ़ता-ऋग्वेद, सामवेद, मनुस्मृति आदि को मानकर अग्नि-होम आदि करना, ३. सामायिक मढ़ता-बौद्ध (यद्यपि यह वैदिक धर्म से भिन्न है), नैयायिक, वैशेषिक, जटाधारी, सांख्य, शैव, पाशुपत, कापालिक आदि को मानना तथा ४. देव मढ़ता-ब्रह्मा, विष्णु, महादेव आदि में देवत्व मानना । इसमें समिति, एषणा, गुप्ति, भावनाएँ, रात्रि-भोजन आदि के भी वर्णन हैं। इतना ही नहीं, यह अधिकार अहिंसा को प्रधानता देते हुए कहता है कि हिंसा के दोष से रहित यदि कोई अयोग्य वचन भी है, तो वह भावसत्य समझा जायेगा। और अन्त में फिर एक बार यह षट्कायों की रक्षा के लिए प्रेरित करता है। १. गा० १२३. २. गा० १८३. ३. गा० २०६, २०७, २०८, २३८, २३६.. ४. गा० २५७-२६०, २६२-६४. ५. गा. २८८, २८६, २६५, ३००, ३०४, ३०५, ३१८-३२६, ३३१,
३३८, ३५३, ३८३. ६. गा० ३१३. ७. गा० १६, १७.
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