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जैन धर्म में अहिंसा
इसका मतलब यह कि एकेन्द्रिय जीव से द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय से त्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय से पंचेन्द्रिय जीव अधिक चेतना तथा अधिक विकसित होते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो सभी जीवों को बराबर-बराबर इन्द्रियाँ ही प्राप्त होतीं। किन्तु बात ऐसी नहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि जीवों में अन्तर है और जब जीवों में अन्तर है तो उनकी हिंसा में भी अन्तर होगा ही।
सूत्रकृतांग में हस्तितापसों की चर्चा है । जब आर्द्र कुमार महावीर से मिलने को प्रस्थान करते हैं तो राह में अनेक मत वाले मिलते हैं और अपने-अपने मतों की प्रधानता दिखाते हैं; उसी सिलसिले में हस्तितापस भी आते हैं और कहते हैं
"...."बुद्धिमान् मनुष्यों को सदा अल्पत्व और बहुत्व का विचार करना चाहिये। जो कन्दमूल, फल आदि को खाकर अपना निर्वाह करनेवाले तापस हैं, वे बहत से स्थावर प्राणियों को तथा उनके आश्रित अनेक जंगम प्राणियों का नाश करते हैं। गलर आदि फलों में बहुत से जंगम आदि प्राणी निवास करते हैं। इसलिये गुलर आदि फलों को खानेवाले तापस उन अनेक जंगम जीवों का विनाश करते हैं। तथा जो लोग भिक्षा से अपनी जीविका चलाते हैं वे भी भिक्षा के लिए इधर-उधर जाते-आते समय अनेक कीड़ी आदि प्राणियों का मर्दन करते हैं तथा भिक्षा की कामना से उनका चित भी दूषित हो जाता है। अतः हम लोग वर्षभर में एक महान् हाथी को मारकर उसके मांस से वर्ष भर अपना निर्वाह करते हैं और शेष जीवों की रक्षा करते हैं । अतः हमारा धर्म आचरण करने से अनेक प्राणियों की रक्षा और एक प्राणी का विनाश होता है इसलिए यह धर्म सबसे श्रेष्ठ है ।''
यदि हिंसा का स्तर हिंसित जीवों की संख्या पर निर्भर होता तो एक व्यक्ति जो दो-चार ईख तोड़कर चूस डालता है वह और १. संवच्छरेणवि य एगमगं, बारणेण मारेउ महागयं तु ।
सेसाण जीवाण दयट्ठयाए, वासं वयं वित्ति पकप्पयामो ॥ ५२ ॥ सूत्रकृतांग ( सं० अम्बिकादत्तजी प्रोझा ), द्वितीय श्रुतस्कन्ध, षष्ठ मध्ययन, प० ३७२-३७३.
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