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जन दृष्टि से पहिसा
१४३ अर्थात् मन, वचन, काय के दुष्प्रयोग से जो प्राणहनन होता है, वही हिंसा है। इसके चार भंग हैं--
१. भावरूप में और द्रव्यरूप में, २. भावरूप में पर द्रव्यरूप में नहीं, ३. भावरूप में नहीं किन्तु द्रव्यरूप में और ४. न भावरूप में और न द्रव्यरूप में।
जैसे कोई व्यक्ति सर्प को मारने के उद्देश्य से डंडा लेता है और सर्प को मार डालता है, यह हिंसा के भावरूप और द्रव्यरूप हए। क्योंकि यहाँ पर मारनेवाले के मन में सर्प को मारने का भाव आया और उसने उसे डंडे से मार भी डाला । यदि व्यक्ति ने सर्प को मारने के लिए डंडा उठाया और सांप भाग गया अर्थात सर्प का प्राणघात वह नहीं कर पाया, तो ऐसी स्थिति में भावहिंसा तो हुई किन्तु द्रव्य हिंसा नहीं हुई। संयोगवश यदि एक व्यक्ति पुआल से अन्न को अलग करने के लिए कटे हुए धान के पौधों को पीट रहा हो और उस पीटने के सिलसिले में पौधों के नीचे बैठा हआ सर्प अनजाने चोट खाकर मर जाये तो यहाँ पर भावहिंसा नहीं किन्तु द्रव्यहिंसा हुई। धान पीटनेवाले व्यक्ति के मन में सर्प को मारने की कोई भी भावना नहीं थी। लेकिन किसी सर्प को देखकर यदि एक व्यक्ति यह सोचकर कि यह भी एक जीव है, जो स्वच्छन्द विचर रहा है, न उसे मारने को सोचता है और न मारता ही है तो यहाँ न भावहिंसा हुई और न द्रव्यहिंसा ही। प्रवचनसार में हेमराज पांडेय ने इसके अध्याय ३ गाथा १६ की व्याख्या करते हुए हिंसा के दो रूप-अंतरंग और बहिरंग बताये हैं। ज्ञानप्राण का घात करनेवाली अशुद्धोपयोग रूप प्रवृत्ति अंतरंग हिंसा है और बाह्य जीव का घात करनेवाली बहिरंग हिंसा है।
सूत्रकृतांग, उपासकदशांग आदि में हिंसा की परिभाषा नहीं मिलती किन्तु अहिंसा-सम्बन्धी जो चर्चाएं हुई हैं, उनसे यह मालूम हो जाता है कि हिंसा के कौन-कौन से रूप होते हैं । सूत्रकृतांग के प्रथम खण्ड में हिंसा का निषेध करते हुए "तिविहेण"
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