________________
१४१
जैन दृष्टि से अहिंसा अथवा उच्छवास । एक श्वास तथा निःश्वास मिलकर यानी ७५४६ आवलिकाओं का एक प्राण होता है। इस प्रकार यह गणना घड़ी तक जाती है। इस तरह प्राण को विभिन्न रूपों में समझने का प्रयास किया गया है। सामान्यतौर से इतना कहा जा सकता है कि जिस शक्ति मे हम जीव को किसी न किसी रूप में जीवित देखते हैं वह शक्ति प्राण है, जिसके अभाव में कोई भी शरीर गतिहीन हो जाता है। यह शरीरधारी जीव की भिन्न-भिन्न शक्तियों के रूप में देखा जाता है। इसी वजह से प्राण के दस भेद किए गए हैं: १. स्पर्शनेन्द्रिय बल प्राण, २. रसनेन्द्रिय बल प्राण, ३. घ्राणेन्द्रिय बल प्राण, ४. चक्षुरिन्द्रिय बल प्राण, ५. श्रोत्रेन्द्रिय बल प्राण, ६. काय बल प्राण, ७ वचन बल प्राण, ८. मन बल प्राण, ६. श्वासोच्छवास बल प्राण, १०. आयुष्य बल प्राण । परन्तु सभी जीवों में प्राण बराबर नहीं होते। एकेन्द्रिय जीव चार प्राणों का धारक होता है-स्पर्शनेन्द्रिय, काय, श्वासोच्छवास तथा आयुष्य; द्वीन्द्रिय में छः प्राण पाए जाते हैं-उपर्युक्त चार और दो-रसनेन्द्रिय तथा वचन; त्रीन्द्रिय में सात-पूर्वोक्त छः तथा घ्राणेन्द्रिय ; चतुरिन्द्रिय में आठपूर्वोक्त सात एवं चक्षुरिन्द्रिय; असंज्ञी पंचेन्द्रिय में नौ-पूर्वोक्त आठ और श्रोत्रेन्द्रिय का और संज्ञी पंचेन्द्रिय में दस प्राण होते हैंइनमें पूर्वोक्त नौ के अलावा मनोबल भी होता है। प्राण के दो रूप होते हैं-भावप्राण और द्रव्यप्राण, जैसे श्रोत्रेन्द्रिय का जो बाहरी रूप होता है वह द्रव्यप्राण है और सुनने की शक्ति है वह भावप्राण है।
जीव के उपर्युक्त किसी भी प्राण का घात करना हिंसा है। यदि कोई प्राण के द्रव्य रूप का घात करता है अथवा भाव रूप का घात, दोनों हिंसा के क्षेत्र में ही आयेंगे। इसलिए अहिंसा की परिभाषा उपर्युक्त तरीके से की गई है। इस परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि हिंसा में सर्वप्रथम मन का व्यापार होता है, फिर वचन और काय का। क्योंकि प्रमाद के वश में हए व्यक्ति के मन में प्रतिशोध की भावना जगती है, जो हिंसा करने के उद्देश्य को जन्म देती है, फिर वह कष्टदायक वचन का प्रयोग करता है और यदि इससे भी आगे बढ़ता है तो उस जीव का प्राणघात करता है, जिसके प्रति उसके मन में प्रमाद जाग्रत हुआ रहता है। इसी को अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org