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तृतीय अध्याय जैन दृष्टि से अहिंसा
जिस प्रकार सामान्य दृष्टि से अहिंसा को समझने के लिए यह आवश्यक समझा जाता है कि पहले इसका ज्ञान किया जाए कि हिंसा क्या होती है, और जब हिंसा का ज्ञान हो जाता है तो स्वतः अहिंसा का स्वरूप भी सामने आ जाता है। उसी प्रकार जैन दृष्टिकोण से भी अहिंसा पर प्रकाश डालने के लिए यह आवश्यक. सा मालूम होता है कि पहसे जैन दृष्टि से हिंसा को समझने का ही प्रयास किया जाए। हिंसा की परिभाषा: __ तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने हिंसा को परिभाषित करते हुए कहा है
"प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिसा"" अर्थात् प्रमादवश जो प्राणघात होता है, वही हिंसा है। यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि प्राण क्या है ?
जीव जब प्राण धारण करता है तब प्राणी कहलाता है। भगवती सूत्र में कहा गया है कि जीव आभ्यन्तर श्वासोच्छवास तथा बाह्य श्वासोच्छवास लेने के कारण प्राण कहा जाता है। क्योंकि इसके अनुसार जीव के छः नाम हैं (प्राण, भूत, जीव, सत्त्व आदि ) जो विभिन्न संदर्भो में प्रयुक्त होते हैं। कालभेद की दृष्टि से प्राण को यों समझा जा सकता है-समय काल का वह छोटा अंश होता है जिससे आगे काल का कोई विभाजन नहीं हो सकता। असंख्य समय के मिलने से एक आवलिका बनती है। ३७७३ आवलिकाओं का एक श्वास होता है और इतनी ही आवलिकाओं का एक निःश्वास १. तत्वार्थसूत्र-उमास्वाति, अध्याय ७, सूत्र ८.
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