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जैन दृष्टि से अहिंसा
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वचन और काय से होती है, है तो पहले के बारह भेद के १२ × ३ = ३६ भेद हुए ।
जैसा कि हमलोगों ने पहले ही देखा भी तीन-तीन भेद हो जायेंगे । अर्थात् किन्तु मन, वचन और काय जिन्हें तीन योग माना जाता है, के भी तीन-तीन भेद होते हैं - हिंसा स्वयं
करना, अन्य व्यक्ति से करवाना तथा हिंसा मोदन करना। ये तीन 'करण' कहलाते हैं ३६ और तीन करण के गुणा से हिंसा के १०८
।
करनेवाले का अनुइस प्रकार पहले के भेद माने जाते हैं । '
हिंसा के विभिन्न नाम :
प्रश्नव्याकरण सूत्र में हिंसा के निम्नलिखित ३० नाम बताये गये हैं
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१. पाणवहं - प्राणवधः - जीवघातः अर्थात् जीवों का घात करना । २. उम्मूलणा सरीरओ - उन्मूलना शरीरतः - शरीर से वृक्ष को उखाड़ने की तरह जीव की उन्मूलना ।
३. अत्रीसंभो - अविश्रम्भ: - अविश्वास, प्राणघात करने में जीव के प्रति विश्वास नहीं होता ।
४. हिंसविहिंसा - हिंस्यविहिंसा - प्राणियों के प्राणों का विनाश । ५. अकिच्चं - अकृत्य - अकरणीयं ।
६. घायणा - घातना - घात करना ।
७. मारणा-मारण अर्थात् मृत्यु का हेतु ।
८. वहणा - हननम् - वध, हनन ।
६. उद्दवणा — उपद्रवणम् - उपद्रव ।
१०. निवायणा - निपातना - त्रिपातना - त्रयाणां मनोवाक्कायानां अथवा देहयुक्तेन्द्रियाणां जीवस्य पातना - मन, वचन, काया इन तीनों से अथवा शरीर, आयु और इन्द्रिय इन तीनों से जीव को रहित करना ।
११. आरंभसमारंभो - आरंभसमारंभ |
१. अहिंसा- दर्शन, पृष्ठ १३५-१३६.
२. प्रश्नव्याकरण, प्रथम श्रुतस्कन्ध ( श्राश्रवद्वार ), अध्ययन १, सूत्र २,
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