________________
१३६
जैन धर्म में अहिंसा कर्म से भोजन करता है, वह जिह्वा के वश होनेवाला मुनि नहीं बल्कि श्रावक है।' __शीलगुणाधिकार में गुण के भेदरूप १८ हजार शील बताए गए हैं।२ उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि मुनि के दशधर्म हैं
और जो मुनि मन करण से रहित, शुद्ध भाषा सहित, पृथ्वीकायसंयमसहित, क्षमा गण युक्त तथा शुद्ध चारित्रवाले हैं उनका पहला शील मनोयोग स्थिर रहता है। हिंसादिअतिक्रम, कायविराधना, आलोचनाशुद्धि इनके क्रम से गुणा करने पर गुणों की संख्या चौरासी लाख होती है । तथा
"हिंसा से रहित, अतिक्रमणदोष करने से रहित, पथिवी. काय तथा पृथिवीकायिक की पीड़ा-विराधना से रहित, स्त्री की संगति से रहित, आकंपित दोष के करने से रहित, आलोचन की शुद्धि से युक्त संयमी, धीर, वीर मुनि के पहिला गुण अहिंसा होता है। पर्याप्ति अधिकार-अन्तिम अधिकार में संज्ञा, लक्षण, स्वामित्व, संख्यापरिमाण, निर्वति और स्थितिकाल-पर्याप्ति के इन छः भेदों के वर्णन हैं।
रत्नकरण्ड-उपासकाध्ययन :
इसके प्रथम अध्ययन में 'देवतामूढ़' को पारिभाषित करते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति वर पाने की इच्छा से आशातृष्णा के वश तथा रागद्वेष से दूषित होकर देवताओं की पूजा-आराधना करता है वह 'देवतामूढ' है। जो हिंसायुक्त सांसारिक व्यवहारों में लीन और आदर-सत्कारों के पीछे पड़े हुए हैं वे 'पाषण्डिमूढ़' हैं। किन्तु जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध हैं वे अवती होते
१. अधि० १०, गा० ६१८-६२१, ६२५, ६२७, ६५७. २. अधि० ११, गा० १०१६, १०१७. ३. अधि० ११, गा० १०२०-१०२३ तथा १०३२, १०३३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org