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जैन धर्म में अहिंसा पिण्ड शुद्धि अधिकार में मुनियों के आहार-संबंधो ४६ दोष उल्लिखित हैं।'
षडावश्यकाधिकार में छः आवश्यकों के वर्णन हैं। इसके अनु. सार जो साधु सभी समय मोक्ष प्राप्ति की कामना से मूलगुणों को धारण किये रहता है तथा सभी जीवों में समता का भाव रखता है वह सर्वसाधु है ।२ आगे सामायिक का विस्तार करते हुए कहा है-'सब कामों में राग-द्वेष छोड़कर समभाव व द्वादशांग सूत्रों में श्रद्धान होना उसे तुम उत्तम सामायिक जानो।'
द्वादशानुप्रेक्षाधिकार में अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, बोधि-इन अनुप्रेक्षाओं के स्वरूप पर विचार किया गया है। राग और द्वेष की भर्त्सना करते हुए कहा गया है कि राग से अशुभ एवं मलिन, घिनावनी वस्तुओं में अनुराग होता है और मोह जीव को बाध्य करता है कि वह अपना असली रूप भूल जाये। राग, द्वेष, क्रोध आदि आस्रव हैं जिनसे कर्म आते हैं। ये कुमार्गों पर प्रेरित करनेवाली अति बलवान शक्तियाँ हैं। इसके अलावा यह अधिकार कहता है कि सब जीवों के हितकारी तथा तीर्थंकर द्वारा उपदेशित धर्म को माननेवाला पुण्यवान होता है; क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, तप आदि मुनि के धर्म होते हैं; शांति, दया, क्षमा, वैराग्य आदि जैसेजैसे बढ़ते हैं, जीव वैसे-वैसे मोक्ष के निकट बढ़ता जाता है।"
अनगारभावाधिकार में लिंगशुद्धि, व्रतशुद्धि, वसतिशुद्धि, विहारशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, ज्ञानशुद्धि, उज्झनशुद्धि, वाक्यशुद्धि और ध्यानशुद्धि को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि इन शुद्धियों १. अधि. ६, गा० ४२४, ४४१, ४६६.
गाथाएं ४७०-४७१ भी देखें। २. अधि० ७, गा० ५१२. ३, अधि० ७, गाथा ५२३ तथा ५१८ से ५३४ तक देखें। ४. अधि०८, गा० ७२८, ७२६, ७३१ तथा ७५७. ५. अधि०८, गा० ७५०; प्र०८, गाथाएं ७५२ तथा ७५३ भो देखें।
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